Sunday, September 12, 2010

गोवंडी झुग्गी बस्ती डोक्यूमेंटरी

गोवंडी झुग्गी बस्ती – एक रिपोर्ट और डोक्युमेंटरी फ़िल्म


चेंबूर के पास स्थित गोवंडी झुग्गी बस्ती मुम्बई महानगरीय इलाकों में संभवत: सबसे अधिक त्रासद स्तिथी मे है।महानगर के एक दूर दराज किनारे पर स्थित होने के कारण इस बस्ती की तरफ बहुत कम लोगों का ध्यान जाता है।इस बस्ती मे लगभग बीस पच्चीस हजार निवासी भयंकर गरीबी के साथ साथ अकल्पनीय नारकीय जीवन जीने के लिये अभिशप्त हैं।

महानगर पालिका ने आसपास की संभ्रांत बस्तियों का कूडा कचरा इसी बस्ती मे जमा कर रखा है।यहां मुम्बई के जहरीले कचरे के कई पहाड से बन गये हैं जो दूर से ही आगन्तुकों का ध्यान खींचते हैं।बरसात के दिनों मे इन कचरे के पहाडों का कचरा बारिश के साथ बहकर बस्ती की गलियों मे दमघोंटू दुर्गंध पैदा करता है।बस्ती से होकर बहने वाला गन्दा नाला यहां के निवासियों की मुसीबत और अधिक बढा देता है।एक तरफ गंदा नाला और दूसरी तरफ कचरे के पहाड मिलकर ऐसी सामूहिक दुर्गंध पैदा करते हैं कि नाक पर कपडा रखने के बाद भी तीखी बदबू से निजात नही मिलती।यहां चारों तरफ मक्खी और मच्छरों का साम्राज्य है।साफ हवा,साफ पानी और पौष्टिक भोजन के अभाव मे बस्ती के लोगों मे कई बीमारियां चिंताजनक स्तिथि मे पहुंच गई हैं।

बस्ती के अधिकांश घरों मे टी.वी.और फेफडों से सम्बन्धित कई बीमारियां फैल चुकी हैं। स्कूली बच्चे भी इन गंभीर बीमारियों की चपेट मे हैं।बच्चों मे इन घातक बीमारियों का संक्रमण एक खतरनाक संकेत है। समय रहते हुए मुख्यत: गंदगी के कारण फैलने वाली इन बीमारियों की रोकथाम बहुत जरूरी है।

इस बस्ती के गरीब मेहनत कश मजदूर परिवारों के पास न अपने संसाधन हैं और न इनके पास संबन्धित सरकारी विभागों को अपनी स्थिति से अवगत कराने का समय एवम उचित जानकारी है।ज्यादातर लोग अनपढ हैं।बहुत से बच्चे भी १४ वर्ष तक के बच्चों की अनिवार्य शिक्षा कानून के बावजूद स्कूल नही जा पाते।एक तरह से गोवंडी बस्ती मुम्बई महानगर के माथे पर एक ऐसा कलंक है जिसके लिये हम सब जिम्मेदार हैं।यहां के गरीब लोग साक्षात नरक/ दोजख मे रह रहे हैं।यह नरक भी महानगर के संभ्रांत लोगो की जीवन शैली से ही उपजा नरक है।लेकिन इस नरक की सजा गोवंडी के निवासी भुगत रहे हैं।

कुछ समय पहले धर्म भारती मिशन नामक सामाजिक उत्थान के कार्यों मे जुटी संस्था ने इस बस्ती के तीन स्कूलों के बच्चों को पौष्टिक भोजन उपलब्ध कराने एवम शिक्षा का स्तर सुधारने तथा कम्पयूटर की शिक्षा देने की एक योजना शुरू की थी।धीरे धीरे कई सहृदय लोगों के सहयोग से इस संस्था ने यहां शौचालय आदि बनवाकर इलाके की सफाई आदि पर भी काफी काम किया है ।यह संस्था अपने सीमित साधनो के साथ आर.टी आई के माध्यम से भी यहां के निवासियों मे जागरूकता लाने के लिये प्रयास रत है।

धर्म भारती मिशन हालाकि पूरे प्रयत्न से अपने काम मे जुटा है लेकिन यहां की समस्याओं को देखते हुए इसे भी आटे मे नमक ही कहा जायेगा।इस काम को काफी बडे स्तर पर सरकारी एवम गैर सरकारी संस्थाओं की मदद से तेजी से आगे बढाने की आवश्यकता है।कई संस्थाओं एवम प्रबुद्ध बुद्धिजीवियों ने धर्म भारती मिशन के साथ जुडकर गोवंडी के समग्र विकास की एक महत्वाकांक्षी योजना ‘गोवंडी कायाकल्प परियोजना’ शुरु की है ।इस परियोजना मे जनता के सहयोग से गोवंडी को प्रदूषण एवम बीमारी से मुक्त कर बस्ती के बच्चों को स्तरीय शिक्षा उपलब्ध कराकर यहां का समग्र विकास सुनिश्चित किया जाएगा।गोवंडी का कायाकल्प कर इसे एक आदर्श बस्ती बनाकर देश और दुनिया के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत करना है।इस योजना को सफलता पूर्वक शीघ्रातिशीघ्र पूरा करने के लिये सभी मुम्बई वासियों के सक्रिय सहयोग की आवश्यकता है।

सभी मुम्बई वासियों से अनुरोध है कि इस पवित्र काम मे ष्रमदान एवम आर्थिक सहभागिता कर ‘गोवंडी कायाकल्प परियोजना’ को सफल बनाने मे समुचित सहयोग करें।धर्म भारती मिशन के इस काम मे सहयोग के लिये 'नवसृष्टि इंटरनेशनल ट्रस्ट' को देय चेक या ड्राफ्ट निम्न पते पर भेज सकते हैं।

संयोजक

धर्म भारती मिशन

56-बी मित्तल टावर्श, नरीमन प्वाइंट

मुम्बई-400021

फोन-91-22-22043208

ई-मेल- sing_param@rediffmail.com

वेबसाईट www.dbmindia.org

अधिक जानकारी के लिये उपरोक्त पते पर पत्र व्यवहार अथवा निम्न नंबर पर संपर्क हो सकता है-

परमजीत सिंह 9892059168

नोट: हाल ही मे लेखक आर.के.पलीवाल और आबिद सुरती ने धर्म भारती मिशन के लिये गोवंडी झुग्गी बस्ती पर एक डोक्यूमेंटरी फिल्म बनाई है।इसे सभी मुम्बई और देश वासियों को देखना चाहिये।संपर्क –


आर.के.पालीवाल 9930989569

Friday, July 2, 2010

गजल -५

                    गजल -  ५

वो रोजे तक कजा नही करते



हम नमाज भी अदा नही करते






सदियों की दूरियां हैं हमारे दरमियां


फासले इतनी जल्दी मिटा नही करते






क्यूं सजदा सा करते हो आतताई का


फरिस्ते इस तरह झुका नही करते






ठिठक कर दायें बायें मत देखो


राह मे यूं रुका नही करते






हम तो लंबी डगर के घोडे हैं राकेश


दिनों महीनों का मुताअ नहीं करते

Thursday, June 24, 2010

गजल -   ४          जुगनू






जुगनू जुटे हैं उजालों के हक मे


अंधेरा मगर भागता ही नही है






कहां छिप गये हैं चांद और सूरज


कोई वो जगह जानता ही नही है






उठो नौजवानों तुम्ही उठ के बैठो


तुम कौन चांद ओ तारों से कम हो






अंधेरे से लड्ते हुए जुगनुओं को


कंधे से कंधा कदम से कदम दो

Friday, June 18, 2010

गजल- 3

                          मीडिया


मीडिया पर माया का खौफ सा छाया हुआ


मीडिया अब आम लोगों के लिये माया हुआ




औरतों के जिस्म जो छपते थे पेज तीन पर


अब हर एक पेज पर मुद्द्दा यही छाया हुआ



सुर्ख खबरों का कोई आम से ताल्लुक नहीं


इन सभी खबरों का मौजू खास सरमाया हुआ




दंगा फसादी और फैशन दो बडे मसलए बने


इल्मो-अदब की पैरवी से भी कतराया हुआ



राकेश जब जम्हूरिअत लंगडी हुई है मुल्क की


मीडिया इस दौर मे रात का साया हुआ

Friday, June 11, 2010

गजल 2

                 आगाज़



बंटे हुए हैं  लोग  बडी    अनबन है


इन बन्द मकानो में बडी सीलन है



तपिस से झुलसे हैं इल्म के दरिया


नई   किताबों  मे  सिर्फ छीलन है



उठो कुछ तो करो तुम भी राकेश


खतरे मे   ताज   ओर नरीमन है



Monday, June 7, 2010

गजल - 1

                      गजल - 1


हम सफर तो नीम राह तक नही चले



कोई बताए दाल उनसे किस तरह गले






यादों की फेहरिस्त मे हैं हादसे कई


गनीमत है कि चलते रहे अपने काफिले






कुछ तो खुदा का कौल फेल कीजिए जरा


ये क्या कभी इधर कभी उधर जा मिले






तुमने अचानक आ के चोंका दिया मुझे


मैं सोचता था आओगे तुम देर दिन ढले






पैमाना दोस्ती का एक ये भी है राकेश


जो मंजिले मकसूद तक बेखतर चले

Wednesday, June 2, 2010

आबिद सुरती का सम्मान

ढब्बूजी पचहत्तर के हुए



देवमणि पाण्डेय, आर.के.पालीवाल, आबिद सुरती, दिनकर जोशी, साजिद रशीद, प्रतिमा जोशी, सुधा अरोड़ा

आबिद सुरती के 75 वें जन्म दिन के अवसर पर आबिद सुरती का सम्मान समारोह और उन्हीं पर केंद्रित शब्दयोग के विशेषांक का लोकार्पण हिन्दुस्तानी प्रचार सभा मुम्बई के सभागार में 28 मई 2010 को आयोजित हुआ। इस अवसर पर समाज सेवी संस्था ‘योगदान’ के सचिव आर.के.अग्रवाल ने आबिद सुरती की पानी बचाओ मुहिम के लिये दस हजार रुपये का चेक भेंट किया। सम्मान स्वरूप उन्हें शाल और श्रीफल के बजाय उनके व्यक्तित्व के अनुरूप कैपरीन (बरमूडा) और रंगीन टी शर्ट भेंट किया गया।

कार्यक्रम की शुरुआत में आर.के.पालीवाल की आबिद सुरती पर लिखी लम्बी कविता ‘आबिद और मैं’ का पाठ फिल्म अभिनेत्री एडीना वाडीवाला ने किया। सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार शरद जोशी की एक चर्चित रचना ‘मैं, आबिद और ब्लैक आउट’ का पाठ उनकी सुपुत्री एवं सुपरिचित अभिनेत्री नेहा शरद ने स्वर्गीय शरद जोशी के अंदाज़ में प्रस्तुत किया।



                                                आर.के.पालीवाल और आबिद सुरती


संचालक देवमणि पांडेय ने आबिद सुरती को घुमक्कड़, फक्कड़ और हरफ़नमौला रचनाकार बताते हुए निदा फ़ाज़ली के एक शेर के हवाले से उनकी शख़्सियत को रेखांकित किया-


हर आदमी मे होते हैं दस बीस आदमी

जिसको भी देखना हो कई बार देखना



समाज सेवी संस्था ‘योगदान’ की त्रैमासिक पत्रिका शब्दयोग के इस विषेशांक का परिचय कराते हुए इस अंक के संयोजक प्रतिष्ठित कथाकार आर. के. पालीवाल ने कहा कि आबिद सुरती बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। कथाकार और व्यंग्यकार होने के साथ ही उन्होंने कार्टून विधा में महारत हासिल की है, पेंटिंग मे नाम कमाया है, फिल्म लेखन किया है और ग़ज़ल विधा में भी हाथ आजमाये हैं। ‘धर्मयुग’ जैसी कालजयी पत्रिका में 30 साल तक लगातार ‘कार्टून कोना ढब्बूजी’ पेश करके रिकार्ड बनाया है। इसीलिये इस अंक का संयोजन करने में भी काफी मशक्कत करनी पड़ी है क्योंकि आबिद सुरती को समग्रता मे प्रस्तुत करने के लिये उनके सभी पक्षों का समायोजन करना ज़रूरी था।



                    आबिद सुरती से सवाल पूछते हुए वरिष्ठ गुजराती साहित्यकार दिनकर जोशी

हिंदी साहित्यकार श्रीमती सुधा अरोड़ा ने आबिद सुरती से जुड़े कुछ रोचक संस्मरण सुनाये। उन्होंने ‘हंस’ में छपी आबिद जी की चर्चित एवम् विवादास्पद कहानी ‘कोरा कैनवास’ की आलोचना करते हुए कहा कि आबिद जैसी नेक शख़्सियत से ऐसी घटिया कहानी की उम्मीद नही थी। उर्दू साहित्यकार साजिद रशीद और मराठी साहित्यकार श्रीमती प्रतिमा जोशी ने भी आबिद जी की शख़्सियत पर प्रकाश डाला। वरिष्ठ गुजराती साहित्यकार दिनकर जोशी ने आबिद सुरती के साथ बिताये लम्बे साहित्य सहवास को याद करते हुए कहा कि आबिद पिछले कई सालों से अपने निराले अंदाज में लेखन मे सक्रिय हैं। यही उनके स्वास्थ्य एवम बच्चों जैसी चंचलता और सक्रियता का भी राज़ है।



                                   श्रोताओं के प्रश्नों का उत्तर देते हुए आबिदसुरती

श्रोताओं के प्रश्नों का उत्तर देते हुए आबिद सुरती ने कहा कि मेरे सामने हमेशा एक सवाल रहता है कि मुझे पढ़ने के बाद पाठक क्या हासिल करेंगे। इसलिए मैं संदेश और उपदेश नहीं देता। आजकल मैं केवल प्रकाशक के लिए किताब नहीं लिखता और महज बेचने के लिए चित्र नहीं बनाता। मेरी पेंटिंग और मेरा लेखन मेरे आत्मसंतोष के लिए है। भविष्य में जो लिखूंगा अपनी प्रतिबद्धता (कमिटमेंट) के साथ लिखूंगा। श्रोताओं की फरमाइश पर आबिद जी ने अपनी एक ग़ज़ल का पाठ किया-



साथ तेरे है वक़्त भी तो ग़म नहीं

दिन कभी तो रात मेरी जेब में है

है न रोटी दो वक़्त की आबिद मगर

जहां सारा आज तेरी जेब में है

 इस आयोजन में आबिद सुरती के बहुत से पाठकों एवम् प्रशंसकों के साथ मुंबई के साहित्य जगत से कथाकार ऊषा भटनागर, कथाकार कमलेश बख्शी, कथाकार सूरज प्रकाश , कवि ह्रदयेश मयंक, कवि रमेश यादव, कवि बसंत आर्य, हिंदी सेवी जितेंद्र जैन (जर्मनी), डॉ.रत्ना झा, ए.एम.अत्तार और चित्रकार जैन कमल मौजूद थे। प्रदीप पंडित (संपादक: शुक्रवार), डॉ. सुशील गुप्ता (संपादक: हिंदुस्तानी ज़बान), मनहर चौहान (संपादक: दमख़म), डॉ. राजम नटराजन पिल्लै (संपादक: क़ुतुबनुमा), दिव्या जैन (संपादक: अंतरंग संगिनी), मीनू जैन (सह संपादक: डिग्निटी डार्इजेस्ट) ने भी अपनी उपस्थिति से कार्यक्रम की गरिमा बढ़ाई ।


                                                      आबिद सुरती का संक्षिप्त परिचय


हिन्दी और गुजराती के प्रसिद्ध कथाकार,कार्टूनिस्ट और प्रख्यात चित्रकार आबिद सुरती का जन्म पांच मई उन्नीस सौ पैंतीस मे राजुला (गुजरात) के एक सफल व्यवसायिक परिवार मे हुआ। जन्म के कुछ समय बाद ही ऐसी परिस्थितियां बनी कि आबिद के परिवार का समुद्री जहाजों का कारोबार रेत के ढेर की तरह खत्म हो गया। पिता के ईलाज के लिये मां के साथ आबिद हमेशा के लिये मुम्बई आ गये। बचपन मे पिता की मृत्यू के बाद अमीरी के अर्श से गरीबी के फर्श पर आयी आबिद की अम्मी ने मेहनत मजूरी करके आबिद को पाला। गरीब बचपन के तमाम संघर्षों से दो चार होते हुए आबिद ने मुम्बई के जे. जे. कालेज आफ आर्टस की पढाई पूरी की। आजीविका के लिये मुम्बई की सडक पर चिक्की बेचने से लेकर किताबों की छोटी लाईब्रेरी चलाने आदि कामों मे हाथ आजमाने के बाद उन्होंने गुजराती और हिन्दी पत्रिकाओं के लिये हास्य व्यंग्य कार्टून बनाने और व्यवसायिक लेखन का काम किया।
 
               
जुलाई 1963 मे हिन्दी की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका धर्मयुग मे 25 वर्षों तक लगातार प्रकाशित होकर सिल्वर जुबली मनाने वाली ढब्बू जी कार्टून सीरीज ने आबिद सुरती को लोकप्रियता के ऐसे शिखर पर पहुंचाया जहां वे खुद ढब्बू जी बनकर हिन्दी पाठकों के मन मष्तिष्क मे आज तक आसन जमाकर बैंठे हैं।

चित्रकला को अपनी मनमाफिक विधा मानने वाले आबिद सुरती ने लेखन को मूलरुप से अपनी आजीविका के साधन के लिये अपनाया था। गुजराती मे हुआ उनका अधिकांश लेखन जिसका हिन्दी मे भी काफी अनुवाद हुआ है मुलत: व्यवसायिक लेखन ही है। आबिद जी खुद स्वीकारते हैं कि उस दौर का उनका लेखन फर्माईसी है जिसमे लेखक को पत्रिका और प्रकाशक की मांग के अनुरूप कफी समझोते करने पडते हैं और अपने प्रिय लेखक मित्रों की लानत मलामत भी सुननी पडती है।

आबिद सुरती का व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों बहु अयामी हैं।जैसे उनका रहन सहन,जीवन दर्शन,यहां तक कि पहनावा तक विशिष्ट है वैसे ही उनका कथा,कार्टून और चित्रकला संसार भी विशिष्ट है। जिन दिनों आबिद सुरती आजीविका के लिये लिख रहे थे उन दिनों भी उनकी कई कहानियों ने हिन्दी के पाठकों और आलोचकों का ध्यान आकर्षित किया था। बाद मे जब आबिद सुरती ने मूलत: हिन्दी मे लिखना शुरू किया तब से उनका लेखन विशुद्ध साहित्यिक श्रेणी का है।

कार्टून और चित्रकला के साथ साथ आबिद जी ने लेखन की लगभग सभी विधाओं मे हाथ आजमाए हैं।आबिद सुरती की अब तक 80 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इन्होंने कहानियों और उपन्यासों के अलावा कुछ गजलें, नाटक और फिल्म स्क्रिप्ट भी लिखी हैं।साहित्य और कला जगत की चकाचौंध से दूर रहते हुए आबिद सुरती पिछ्ले पचास पचपन वर्षों से इन दौनों क्षेत्रों की एकांत साधना करते रहे हैं। उनका अंदाजे बयां और अंदाजे चित्रण ही विशिष्ट नही बल्कि अंदाजे जीवन भी विशिष्ट है। आजकल वे साहित्य और कला के साथ साथ पानी बचाओ मुहिम के सामाजिक सरोकार से भी गहरे जुडे हैं। बहुत कम साहित्य संस्कृति कर्मी ऐसे हैं जो पानी जैसी बुनियादी चीजों के संरक्षण मे एक जमीनी सामाजिक कार्यकर्ता की तरह गहरे सरोकार रखते हैं।

कैनाल, कोरा कैनवास, बिज्जू, आतंकित और कोटा रेड जैसी चर्चित और प्रशंसित कहानियां एवम कथा वाचक, मुसलमान और अदमी और चूहे जैसे सशक्त उपन्यास लिख्नने वाले इस कथाकार को यूं तो साहित्य जगत के कुछ पुरस्कारों से नवाजा गया है लेकिन साहित्य के बडे पुरस्कार अभी उनकी पहुंच के बाहर रहे हैं। उनका लेखन अभी अनवरत जारी है। उम्मीद की जानी चाहिये कि उनकी कलम से अभी कई अच्छी रचनायें आना बाकी हैं। और निकट भविष्य मे उन्हें साहित्य जगत के शीर्ष पुरस्कारों से भी नवाजा जायेगा।

खुशी का अवसर यह भी है कि बहत्तर साल का बच्चा नाम का उपन्यास लिखने वाले आबिद सुरती आगामी 5 मई को पचहत्तर वर्ष के हो रहे हैं। आबिद जी की प्लेटिनम जयन्ती पर शब्दयोग पत्रिका ने उन पर हाल ही मे एक अंक (जून 2010) केंद्रित किया है।

Monday, April 19, 2010

आबिद और मैं










कई सालों से जानता हूं आबिद सुरती को

तब से

जब से पढना शुरू किया था धर्मयुग।


आबिद मतलब धर्मयुग

आबिद मतलब ढब्बू जी।



कुछ साल पहले तक

बस इतना ही परिचय था

आबिद सुरती से।



फिर एक शामे अवध

दो हजार पांच या छै: की

इस वक्त ठीक से याद नहीं सही तिथी

एक आम सी सर्द सी शाम की

एक आम सी अदबी रस रंजन पार्टी थी

अफसर कथाकार विभूति नारायण राय के घर

जो खास बनी आबिद सुरती से

रूबरू मुलाकात के बाद।



उस शाम आबिद

ढब्बू जी नहीं थे

थोडे धीर गंभीर से

बीच बीच मे मंद मंद मुस्कुराते

मानो रंग गये हों लखनवी अंदाज में

धीमी आवाज में बतियाते

और उससे भी धीमी रफ्तार से

विस्की की चुस्कियां लेते आबिद।



फिर दिल्ली की एक गुनगुनी दोपहर

पुस्तक मेले का कोई स्टाल

अचानक मिले आबिद

मेरी तरह ही मेले की भीड में भटकते

खोजते कोई खास किताब

किताबों के महासगर में।



बस यहीं आकर अटक गयी थी

हमारी मुलाकात की सूई

तीन चार साल कोई बात नहीं

कोई पत्राचार कोई मुलाकात नहीं।



फिर बीते साल दो हजार नौ का अंतिम महीना

शनिवार की एक सधारण सी शाम

एक साथ गुजारी हम दौनों ने

मुंबई के प्रेस क्लब की छत पर

रस रंग के साथ दुनिया भर के

विविध प्रसंगो पर बात करते हुए।



उस दिन कफी कुछ जाना आबिद को

जितना जाना था पिछले तीस वर्षों मे

उससे भी ज्यादा जाना उन तीन घंटों में।

फिर तो शायद ही कोई शनिवार ऐसा बचा होगा



जब शाम को प्रेस क्लब में न बैठे हों हम दोनों।

इस बीच पढी आबिद की दर्जनों कहानियां

कई उपन्यास्, गजलें,यात्रा वृतांत और विविध लेख

देखा परखा जाना आबिद को बहुत करीब से।



फिर भी लगता है

कहां जान पाया आबिद को अभी

अभी तो बहुत कम जानता हूं आबिद को।



आबिद को जानना इतना आसान कहां

उसे जानने के लिये करनी पडेगी और मशक्कत

पढनी पडेंगी उसकी लिखी अस्सी से अधिक किताबें

देखनी होंगी हजारों पेंटिंग आबिद की

एक बार फिर से दोडानी पडेगी नजर

पच्चीस बरस लम्बी ढब्बू जी कार्टून स्ट्रिप पर।



आबिद को जानने के लिये इतना भर काफी नहीं

उसके साथ घूमना पडेगा मीर रोड की गलियों में

कई बैठक करनी पडेंगी प्रेस क्लब की छत पर

पीनी पडेगी सस्ती डी एस पी ब्लैक विस्की साथ बैठकर।



आप किसी आदमी को जान सकते हैं थोडी देर मे

लेकिन बच्चों का मन जानने के लिये

गुजर जाती है उम्र मांओ की।



आबिद भी तो बच्चा है अभी

और बच्चा भी कोई दूध पीता नही

पके बाल वाला दाढी मूंछ वाला

पचहत्तर सिर्फ पचहत्तर साल का बच्चा।



जब तक मिलता रहा आबिद से दूर दूर से

लगता था आबिद को जानता हूं मैं

अब जब हमारी मुलाकात हो रही हैं जल्दी जल्दी

लगता है बहुत कम जानता हूं आबिद को।

आबिद अगर बच्चा है तो क्या

मेरी भी जिद है बच्चों जैसी

एक दिन अच्छी तरह जानकर ही रहूंगा आबिद को।



अभी तो बहुत कम जानता हूं आबिद को

अभी तो बहुत कुछ जानना है आबिद के बारे मे।


 

Wednesday, April 14, 2010

आबिद सुरती और आर .के.पालीवाल की अंतरंग वार्ता - 4

आपकी कुछ कहानियों/उपन्यासों में अधेड उम्र के पुरूषों का उनसे काफी कम उम्र की लडकियों/स्त्रियों के प्रति गहरा आकर्षण ओर दैहिक संबंधों का चित्रण है।एक तरह से लेखक ऐसे संबंधों का पक्ष लेता भी दिखता है जिन्हें समाज अस्वीकृत करता है । वे संबंध आपके लेखन मे सहज दिखते हैं।

आपका आशय किन कहानियों से है ।

जैसे आपकी बेहद चर्चित कहानी कोरा कैनवास जिसके हंस मे प्रकाशित होने पर पत्रों के माध्यम से काफी प्रतिक्रियाएं हुई थी लेखक और पाठक वर्ग में । इस कहानी को प्रकाशित करते समय हँस के यशस्वी संपादक राजेन्द्र यादव ने इस तरह की वैश्विक कथा सामग्री का संक्षिप्त इतिहास भी बताया था अपने संपादकीय में । यही विषय आपके उपन्यास ‘तितली के पंखो पर उसका नाम’ में हैं और ऐसी ही स्थितियाँ आपके नाटक ‘ढलती उम्र के साये’ में हैं ?



देखिये आपने जो तीन उदाहरण दिये हैं उनमें अधेड उम्र के पुरुष का कम उम्र की लड़की या औरत से प्रेम संबंध दिखाया है । इन सबमें क्या आपको ऐसा लगता है कि ये कोरी कल्पना हैं। मैंने ऐसे कई सम्बन्ध देखे हैं । कोरा कैनवास और ‘तितली के पंखो पर उसका नाम’ मेरी अपनी डायरी पर आधारित है ताकि उसकी विश्वसनीयता पर कोई संदेह न हो। यह एक प्राकृतिक सच है । मैं यह तो नहीं कहता कि अधेड पुरूष ही कम उम्र की महिलाओं के प्रति आशक्त होते हैं या लड़कियाँ अपने से उम्रदराज पुरुष के प्रति आशक्त होती हैं । मेरे कहने का तात्पर्य केवल इतना है कि समाज में कई बार ऐसी परिस्थितियाँ बन जाती हैं जब उम्र के फासले इस तरह के संबंधो में अवरोघक नहीं होते । और जब विवाहित जीवन का रोमांस सूखने लगता है तब किसी स्त्री-पुरूष की आशक्ति ऐसे साथी या सहकर्मी से हो सकती है जिसकी उम्र उससे काफी कम या काफी अधिक है । इसका मतलब यह नहीं है इस तरह के संबध बहुतायत में है । यह तभी संभब है जब दोनों पक्ष इस स्थिती को सहजता से लेते हैं । और मेरा कहना है कि कई बार ऐसी संभावनाए बन जाती हैं ।

कोरा कैनवास कहानी पर यूँ तो कई तरह की प्रतिक्रियायें हुई थी । कुछ पाठकों ने इसे बेहद सराहा था, कुछ ने इसे अश्लील कहकर खारिज किया था लेकिन लेखिका जया जादवानी ने इस पर संतुलित प्रतिक्रिया व्यक्त की थी । कहानी की सराहना के साथ साथ उन्होंने कहा था कि इसमें लेखक ने नायिका के मन को ही खोला है, नायक के मन को वैसे नहीं खोला । मैं इसमें यह और जोड़ना चाहूँगा कि कहानी का नायक विवाहित है। उसकी स्वस्थ सुंदर पत्नि है । लेकिन कहानी न पत्नि की मनस्थिती के बारे में कुछ बताती और न नायक के मन में पत्नी के प्रति जिम्मेदारी के भाव से बचने की मानसिक उथल पुथल का चित्रण करती है । यह कहानी का अधूरापन लगता है ।


जैसे मैं पहले भी कह चुका हूँ , इस कथा का मूलतत्व एक अधेड़ विवाहित पुरूष और एक युवा लड़की के बीच पनपा रिश्ता है, जिसे डायरी के माध्यम से शब्द दिये हैं। इसके विशिष्ट शिल्प के कारण इन दो प्रमुख पात्रों के अलावा बाकी पात्रो और घटनाओं का खास जिक्र नहीं है । क्योकि डायरी इस खास संबंध के बारे में ही लिखी गई है जो सामान्य डायरी लेखन से अलग इसी रिश्ते पर केंद्रित है । इसमें नायक की पत्नी का जिक्र तो आता ही है और यह संकेत भी हैं कि पति-पत्नी के रिश्ते मे कोई खास ऊष्मा नहीं है । इसीलिए इस तरह का रिश्ता जुड़ता है ।

जहाँ तक पाठ्कों की तरह तरह की प्रतिक्रियायें हैं – वे पाठकों की अपनी सोच और अपने नजरिये से कहानी को पढ़ने के कारण बनती हैं । जैसे लेखक लिखते समय कोई नजरिया रखता है वैसे ही पाठक पढ़ते समय अपने नजरिये से कहानी को परखते हैं ।


आपकी कहानियों में कई तरह के शिल्प मिलते हैं । हालांकि ज्यादातर कहानियाँ यथार्थवादी हैं । उनमें से कई में पत्रकार सरीखी पैनी दृष्टी दिखती है जो एक ही घटना के कई पहलुओ को बारीकी से सीधे सीधे पाठकों के सामने रखता है । ‘शोफर’ कहानी में यात्रा वृतांत जैसा रस है । इन सीधी सपाट कहानियों के उलट ‘बिज्जू’ जैसी कुछ ऐसी कहानियाँ हैं जिनमें गहरे प्रतीकों का इस्तेमाल हुआ है । ‘कैनाल’ को भी इसी श्रेणी में रखा जाएगा । शिल्प की विविधता क्या इसीलिए संभव हो पाई कि आप कई विधाओं के हरफन मौला व्यक्ति हैं – मेरा मतलब पत्रकारिता, पेंटिंग, व्यंग, कार्टूनिस्ट, घुमक्कड, फक्कड – और और भी न जाने क्या-क्या ... जैसे पानी बचाने की मुहिम में जुटे समाज सेवी पलम्बर !

आप की बात काफी हद तक सही हो सकती है । मैंने कुछ काम अपने मनमाफिक किये हैं और कुछ रोजी रोटी के लिए । जहाँ तक पत्रकारिता का प्रश्न है – इस पेशे से मेरा सीधा जुडाव नहीं रहा । पत्र पत्रिकाओं के कार्टूनिस्ट की भूमिका और बहुत से पत्रकारों से करीबी दोस्ती के चलते पत्रकारिता से अप्रत्यक्ष जुडाव जरुर रहा है । कई दिशाओ में हाथ पैर चलाने के कुछ फायदे भी होते हैं । कहानियों में विविधता तो सकारात्मक लक्षण ही हुआ (हंसकर)

साहित्यकारों और कलाकारों के सामाजिक सरोकारों और उनकी सामाजिक सक्रियता को लेकर शुरू से दो मत रहे हैं । आप लेखक और कलाकार की सामाजिक सक्रियता को किस हद तक जरुरी समझते हैं ?

पहली बात तो यह कि साहित्यकार या कलाकार को जो सबसे अच्छा लगे वही करना चाहिए । यह चीज बाकी लोगों पर भी लागू होती है । दूसरी, सबकी अपनी व्यक्तिगत परिस्थितियाँ होती हैं । जहाँ तक मेरी अपनी बात है – मैंने शुरुवाती तीस साल तक फरमाईस के अनुसार लेखन किया । उस समय मेरे लिए साहित्यिक या सामाजिक सरोकार से ज्यादा घर परिवार की जिम्मेदारी हावी थी ।


पिछ्ले दस साल से मैंने जो भी लिखा है वह विशुध्द साहित्यिक सरोकार से जुड़कर लिखा है । आगे भी जो लेखन होगा वह इसी तरह का होगा । इस समय मेरी परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि मै सामाजिक सरोकारों से भी जुड़ सकता हूँ । अच्छा भी यही है कि अगर किसी साहित्यकार या कलाकार की पारिवारिक परिस्थितियाँ सामाजिक सरोकारों में सक्रियता से जुड़ने की छूट देती हैं तो उन्हे जरूर आगे आना चाहिए ।


जहाँ तक मेरी सामाजिक सक्रियता और सरोकारों का सवाल है – इधर मैंने नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए बच्चों की सचित्र रोचक पुस्तक माला के लिए एक किताब लिखी है –बुध्द 2500 साल बाद क्यों मुस्कुराये । इस किताब के माध्यम से मैंने एक अनूठा प्रयोग किया है जिसमें अलग-अलग प्रांत से अलग-अलग धर्म के बच्चों के अलग-अलग अंग भारत भ्रमण पर निकलते हैं । ये अंग एक दूसरे से मिलकर एक सुंदर मानव की रचना करते हैं । यह मानव बुध्द के सपने का महा मानव है । आज के भारत को ऐसे ही मनुष्य की आवश्यकता है ।


घुमक्कडी के साथ साथ सांप्रदायिक सदभाव और एकता की आवश्यकता को रोचक अंदाज में प्रस्तुत किया है आपने । मैंने पढी है यह पुस्तिका । बुध्द के मुस्कुराने को बड़ा सुंदर अर्थ दिया है आपने । बच्चों के लिए इस तरह की पुस्तकें बहुत जरूरी हैं । लेकिन दुर्भाग्य से इसकी खासी कमी है ।

अब मैंने इसी तरह के लेखन और कामों की शुरूआत की है । हमारी पानी बचाओ मुहिम भी धीरे-धीरे लोकप्रिय हो रही है । पानी, प्रकृति और पर्यावरण के महत्त्व के प्रति बच्चों और शहरियों को जागरूक करना चाहिए । हमारी संस्था कई कालोनियो के नलो से रिसते पानी की बरबादी रोकने के लिए मुफ्त पलम्बर की सुविधा उपलब्ध कराती है । इसके प्रचार प्रसार में कुछ फिल्मी सितारों सहित कई स्कूलों के बच्चे भी जुड़े हैं ।

प्रकृति और पर्यावरण पर भी कुछ लोग बड़ी संजीदगी से काम कर रहे हैं । कुछ लिखकर, कुछ दूसरी तरह से । हाल ही में मैंने अंग्रेजी लेखिका मुरियन ककानी की वन, वन्यजीवन और पर्यावरण संबैधित बच्चों की अदभुत किताबें देखी हैं । वे ‘इकोलाजिकल टेल्स’ सीरीज के अंतर्गत किताबें प्रकाशित कर रही हैं। ऐसे लेखकों का काम ठीक से सामने आना चाहिए ।

आपने कहा कि कला को मैंने व्यवसायिक नहीं बनने दिया, हमेशा अपनी इच्छानुसार ही पेंटिग्स बनाई । आजकल कला का अच्छा खासा बाजार है जो लेखन से कई गुणा फायदेमंद है । एम.एफ.हुसैन की एक एक पेंटिंग करोडों में बिकती है ! जब लेखन व्यवसायिक हो सकता है तब कला से अर्थोपार्जन में वैसा परहेज क्यूँ !



मेरा मतलब यह नहीं कि पेंटिंग बेचना गलत है । आपने एम.एफ.हुसैन की बात की । उनकी सच्चाई यह है कि उन्हें कला से अधिक मार्केटिंग की कला आती है । किस तरह चर्चा में रहा जाता है और कैसे मीडिया, विशेष्ररूप से कला समीक्षकों की जेबें गर्म करके अपनी सामान्य कला के भी तारीफों के पुल बांधॅ जाते हैं । मैं यह काम नही कर सका। एक बात और है मेरे साथ । मैं यह नहीं कर सकता कि मेरी कोई पेंटिंग यदि ज्यादा पसंद आऐ लोगों को तो उनकी फरमाईश पर मैं दनादन वैसी ही पैंटिंग बनाता रहूँ । हुसैन बार बार घोड़ॉ वाली पैंटिंग बना सकते हैं – मुझसे यह नहीं हो सकता ।

जहाँ तक कला की मार्केटिंग की बात है उससे तो मैं सहमत हो सकता हूँ । बल्कि कई बार सोचत्ता हूँ कि कला समीक्षकों पर कुछ खर्च करके प्रचार प्रसार करता तो बेहतर होता । और ज्यादा लोग मुझे जानते । आमदनी भी ज्यादा होती । लेकिन दूसरी चीज मैं कभी नहीं कर सकता । एक ही तरह की पेंटिंग बार बार थोक में नहीं बना सकता । भले ही उसके लिए अमीर ग्राहक तगडी रकम देने को तैयार हों । तब भी नहीं ।

जहाँ तक मेरी जानकारी है अपनी पेंटिंग की मार्केटिंग का काम पिकासो ने भी कुशलता से किया था और उनके बाद के भी कई कलाकरों ने किया है । लेकिन पिकासो की कला में दम भी था और विविधता भी थी । वह शुध्द व्यवसायी नहीं था ।

एम.एफ.हुसैन के चर्चित घोडों की तरह आपकी कौन-सी पेंटिंग ज्यादा सराही गई हैं ।

मैंने मिरर कोलाज पर काफी काम किया है । उसकी चर्चा और सराहना भी बहुत हुई । लेकिन बाद में उसे भी मैंने बार-बार नहीं दोहराया । (हँसकर) उसे मैंने घोडा बनाकर नहीं दौडाया ।

आप अपनी आत्मकथा कब लिख रहे हैं। लिखेंगे भी या आपकी जीवन गाथा किसी दूसरे लेखक को लिखनी पडेगी।

अपने उपन्यास मुसलमान में मैंने अपनी आत्मकथा तो पहले ही लिख दी है । आत्मकथात्मक उपन्यास लिखने के बाद अलग से आत्मकथा लिखने की आवश्यकता महसूस नहीं होती ।

अभी तो ‘बहत्तर साल का बच्चा’ सिर्फ पचहत्तर साल का बच्चा हुआ है । भविष्य की कुछ महत्वाकांक्षी योजनाएं भी होंगी ।

यदि पूरी हो सकी तो एक बडी तीव्र इच्छा है – अपने उपन्यास काले गुलाब पर फिल्म बनाने की । वैश्याओं के जीवन और उनको समाज से जोडने की पृष्ठ्भूमि है इस उपन्यास की। मुझे उसकी थीम बहुत प्रिय है । देखते हैं यह इच्छा पूरी होती है या नहीं ।

हम उम्मीद करते हैं कि आपकी इच्छा जरूर पूरी होगी और जल्द ही हमें आपकी एक और विधा के दर्शन होंगे – आमीन !

Thursday, April 8, 2010

आबिद सुरती और आर .के.पालीवाल की अंतरंग वार्ता - 3


बाकी भाषाओं के साहित्य से गुजराती भाषा में अनुवाद की स्थिती कैसी है – विशेषत: हिन्दी से गुजराती में अनुवाद

गुजराती में वैसे तो सभी भाषाओं से अनुवाद हुए हैं, लेकिन सबसे ज्यादा अनुवाद बंगला से हुए हैं । शरत, बंकिम और टैगोर का तो लगभग संपूर्ण साहित्य गुजराती में उपलब्ध है । इसी तरह मराठी का भी अच्छा खासा अनुवाद हुआ है गुजराती में । जहाँ तक मेरी जानकारी है गुजराती से हिन्दी में बहुत अधिक अनुवाद नहीं हुए – वैसे जैसे बंगला और मराठी भाषा से हुए हैं।

हिन्दी के अनुवाद इन दो भाषाओं की तुलना में कम जरूर हैं – लेकिन प्रेमचंद आदि की अधिकांश रचनाए गुजराती में अनुवादित हो चुकी हैं । बाद के लेखकों के उतने अनुवाद नही हुए ।

अनुवाद के मामले में हिन्दी वाले ज्यादा फायदे में रहते हैं । साहित्य अकादमी लगभग सभी भाषाओं के अनुवाद नियमित रुप से हिन्दी में उपलब्ध कराती है ।



आपकी कई कहानियों ओर उपन्यासों में घर परिवार, समाज ओर पुलिस प्रशासन की विद्रूपता चित्रित हुई है। ज्यादातर कहानियों में नायक कम खलनायक अधिक हैं । क्या महानगरीय जीवन, जिसका चित्रण आपकी अधिसंख्य कहानियों में हुआ है, में सामाजिक स्तिथियाँ वास्तव में इतनी विद्रूप हो गई हैं जैसी आपके कथा संसार में दिखाई देती हैं ?

यह तो कड़वी सच्चाई है कि महानगरों का, खासकर मुम्बई का, सामाजिक जीवन सीधा सहज और सरल नहीं है । इसमें तरह तरह की कुटिलताएं, विद्रूपतायें भरी पड़ी हैं । लेकिन मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ कि मेरी ज्यादातर कहानियों के पात्र खलनायक हैं। हाँ, कुछ कहानियों में ऐसा मिल सकता है । आपका इशारा किन कहानियों की तरफ है –



आपके ताजा कहानी संग्रह ‘आतंकित’ की ही कहानियों को देखें तो इस संग्रह की शीर्षक कहानी ‘आतंकित’ का भी मुख्य पात्र एक खलनायाक किस्म का संवेदनहीन राजनेता है। इस राजनेता के पुलिसिया बाडीगार्ड भी उसी की तरह हैं। इस राजनेता ओर उसकी सुरक्षा फोज के कालोनी मे आने से पूरे परिसर की शांति भंग हो जाती है।ऐसे ही ओर भी कई कहानियों में भी इसी तरह के पात्र हैं।



जहां तक आतंकित कहानी का विषय है यह एक यथार्थ है। ऐसी घटना का मैं प्रत्यक्ष गवाह रहा हूं। इस कहानी मे नेता ओर पुलिसवालों के अलावा जितने भी पात्र हैं वे सभी शांतिप्रिय नागरिक हैं। कहानी का पति अच्छा है, बीबी अच्छी है ओर कालोनी के लोग अच्छे हैं।



लेकिन ये अच्छे पात्र कहानी के मुख्य पात्र नही हैं। इस से तो मैं भी सहमत हूं कि संग्रह की यह महत्वपूर्ण कहानी है। इसमे न कहीं अतिशयता है ओर न काल्पनिकता है। पुलिस की विद्रूपता की बात करें तो इसी संग्रह की सबसे लम्बी कहानी कोटा रेड मे भी आपने पुलिस की संवेदनहीनता का कच्चा चिट्ठा खोला है। इसके अलावा आपके नये उपन्यास आदमी ओर चूहे मे भी पुलिस का वैसा ही बल्कि उससे भी भयानक चेहरा उजागर होता है। विद्रूपता की इस कडी को थोडा ओर आगे बढायें तो कई ओर कहानियों मसलन बैडरूम कहानी मे भी घर के तीन प्राणी हैं। तीनों त्रासद जिन्दगी जी रहे हैं। घर घर नही है तीन बैडरूम हैं- तीन सदस्यों की तीन अलल थलग दुनियाओं के मूक गवाह । ऐसे ही तीसरी आंख कहानी मे भी पूरा परिवार घर के कमाऊ सदस्य की आंख मे धूल झोंक रहा है। इस परिवार के सभी पात्र यहां तक कि नौकर तक भी मक्कार हैं।



(हँसते हुए) लगता है आपने मेरी काफी कहनियाँ / उपन्यास पढ़ लिए हैं । अब मैं यह तो स्वीकार करता हूँ कि मेरी कुछ ... (हँसकर)....चलिये... कई कहानी मान लेता हूँ ... ऐसी हैं जहाँ प्रमुख पात्र घूर्त, मक्कार हो सकते हैं । लेकीन मैं यह स्पष्ट करना चाहूँगा कि ये सभी कहानियाँ लिखते समय भी मेरी नजर चुन चुनकर खलनायक किस्म के पात्रों को कहानी में लाने पर कभी नहीं रही। जैसे मैंने ‘आतंकित’ के बारे में बताया वैसे ही बाकी कहानियों में भी खराब पात्रों के माध्यम से मैने कुछ अन्य चीत्रों को भी पकड़ने का प्रयास किया है ।

उदाहरण के तौर पर ‘बैडरूम’ कहानी में मेरा ध्यान मुंबई जैसे महानगरों में आवास की समस्या पर नही था । परिवार के तीनों पात्र एक दूसरे को न चाहते हुए भी साथ रहने को मजबूर हैं । वे अलग अलग घर लेकर नहीं रह सकते । बेटा अपनी बूढी मां के लिये अपनी बीबी को उसके प्रेमी सहित रहने का आग्रह करता है ताकि अपाहिज मां को उनकी टूट चुकी शादी की खबर से मानसिक आघात न हो। ऐसे में उन्होने अपने अपने बैडरुम में ही अपनी अपनी दुनिया बना ली है ।

इसी तरह तीसरी आंख कहानी लिखने के पीछे भी मेरा मंतव्य यह नहीं था कि मैं ऐसे परिवार का चित्रण करुं जिसमें मुखिया को छोड़कर बाकी तमाम पात्र गड़बड़ हों । दर असल इस कहानी को मैंने यह दिखाने के लिये गढा था कि परवरदिगार ने हमें जो सब कुछ न देखने की अक्षमता दी है वह उसका मानव जाति पर बडा उपकार है। यदि हम लोग सबके मन मे छिपी भावनाओं को पढने मे सक्षम होते तब यह जीवन कितना दुरूह हो जाता ।

मैं अपनी कुछ ऐसी कहानियों का जिक्र करना चाहूंगा जिसमे आप को बहुत अच्छे पात्र भी मिलेंगे । जैसे सेंटाक्लाज वाली कहानी । उन्नीस सो बानवे के राम मन्दिर बाबरी मस्जिद विवाद की प्रष्ठ्भूमि पर लिखे उपन्यास कथा वाचक का नायक तो एक विलक्षण पात्र है। वह एक अदना सा पुलिस कांस्टेबल है। वह अपने कर्तव्य के प्रति इतना ईमानदार है कि कानून हाथ मे लेने वाले लाखों जुनूनी लोगों की भीड से लोहा लेने के लिये इकलोता खडा रहता है। अपनी जान की परवाह भी नहीं करता।

यह उपन्यास मैने एक पत्रिका मे प्रकाशित एक छोटी सी रिपोर्ट से प्रभावित होकर लिखा था। मैं इस बहादुर सिपाही की हिम्मत से इतना प्रभावित हुआ कि इस महानायक के सम्मान मे पूरा उपन्यास लिख गया ।

(हंसकर).....अब तो आप भी स्वीकार करेंगे कि मेरी अधिसंख्य कहानियों मे खलनायक किस्म के पात्र नही हैं ।

Monday, April 5, 2010

आबिद सुरती और आर .के.पालीवाल की अंतरंग वार्ता - 2


आपने गुजराती और हिन्दी दोनों ही भाषाओं में काफी लिखा है। जाहिर है गुजराती ओर हिन्दी साहित्य आपने पढ़ा भी काफी होगा । इन दोनों भाषाओं के साहित्य को एक आलोचक की नजर से तुलनात्मक रूप में आप कहां पाते हैं। मेरा आशय इनकी परस्पर तुलना ओर विश्व साहित्य के बर अक्श स्तिथी से है।

मै तो अपनी सीमित जानकारी के आधार पर मोटा मोटी ही इस सवाल का जवाब दे पाऊंगा। इसका सही आकलन तो आलोचक ही कर सकते हैं।जहां तक गुजराती ओर हिन्दी साहित्य की तुलना का प्रश्न है मेरा मानना है कि दोनो मे अच्छा साहित्य रचा गया है। हिन्दी मे जिस तरह प्रेमचंद के बाद नई कहानी,प्रगतिवाद,समांतर कहानी आदि आन्दोलन हुए वैसे ही प्रयोग ओर प्रगतिशीलता से गुजराती साहित्य मे भी काफी परिपक्वता आई है। मोहन राकेश आदि ने जिस तरह के बद्लाव हिन्दी साहित्य मे किये गुजराती मे भी नये प्रयोगों से नया साहित्य रचा गया। मैं एक उदाहरण देना चाहूंगा ।मुझे याद नही पडता कि हिन्दी के किसी लेखक ने अपनी कहानी मे रोमान्टिक माहोल दर्शाने के लिए चांद तारों की जगह दोपहर के सूरज ओर चिलचिलाती धूप का इस्तेमाल किया हो। गुजराती के कथाकार सुरेश जोशी ने अब से तीस साल पहले एक प्रेम कहानी मे इस तरह के नये प्रतीक गढे हैं। इससे आप अंदाज लगा सकते हैं कि गुजराती कहानी हिन्दी कहानी से कतई कम नही है।

वैसे भी आजकल एक भाषा से दूसरी मे खूब अनुवाद हो रहे हैं। साहित्य अकादमी राष्ट्रीय स्तर पर और कई प्रादेशिक संस्थाए भी इस काम मे जुटी हैं। ऐसे माहोल मे देश विदेश की बाकी भाषाओं मे हो रहे प्रयोगों का असर समूचे साहित्य पर पडता है।

गुजराती कथाकारों मे आप किन अग्रज एवम समकालीन कथाकारों से अधिक प्रभावित हैं
जहां तक गुजराती कहानी और मेरे पसंदीदा कथाकारों की बात है उसमे सबसे पहले तो यह बताना चाहूंगा कि गुजराती और हिन्दी कहानी की शुरूआत लगभग एक साथ हुई थी। जैसे हिन्दी की आधुनिक कहानी का आरंभ बीसवी शताब्दी के आरंभिक वर्षों मे हुआ वैसे ही 1918 मे प्रकाशित कंचनलाल मेहता मलयानिल की कहानी गोवालणी (ग्वालिन) को गुजराती की आधुनिक कलेवर की कहानी मानते हैं। इसके बाद धूमकेतु की कहानियों ने गुजराती कहानी को बहुत महत्वपूर्ण बदलाव दिया। धूमकेतु ने जीवन के यथार्थ को कहानी से जोडा। राम नरायण द्विरेफ ने अपनी कहानियों मे मानव मन की गुत्थियों को बडी कुशलता से खोला है।

गुजराती कहानी को गांधीजी के राजनीतिक चिन्तन और रूसी क्रान्ति ने भी काफी प्रभावित किया। झवेरचन्द मेघाणी जो पत्रकार के साथ साथ लोक साहित्य के विकट जानकार थे उन्होने कहानी मे आम आदमी का प्रवेश किया। चुन्नीलाल मडिया ने ग्रामीण और शहरी समाज पर व्यंग्य के पुट वाली असरदार कहानियां लिखी।

मेरी नजर मे सुरेश जोशी गुजराती के बेहद सशक्त कथाकार हैं। जोशी ने पाश्चात्य साहित्य का अच्छा खासा अध्ययन किया था। एक तरह से उनकी कहानियों ने भी गुजराती कहानी को नये आयाम दिये।

कई स्त्री कथाकारों का भी गुजराती कहानी लेखन मे महत्वपूर्ण योगदान है। कुन्दनिका कपाडिया, सरोज पाठक, वर्षा अडालजा, हिमांशी सेलत, अंजलि खांडवाला और तारिणी देसाई गुजराती की अग्रणी कथा लेखिका हैं।

वर्तमान भारतीय कहानी जगत मे गुजराती कहानी का महत्वपूर्ण स्थान है। पवन कुमार जैन, कनु अडासी, प्रवीण सिंह चावडा, ध्रुव भट्ट आदि कई कथाकार अच्छी कहानियां लिख रहे हैं। इनकी कहानिओं मे कथा तत्व और कला तत्व दोनों मोजूद हैं।


Thursday, April 1, 2010

आबिद सुरती और आर .के.पालीवाल की अंतरंग वार्ता - 1



आबिद सुरती और आर .के.पालीवाल की अंतरंग वार्ता



आपने साहित्य और कला की विभिन्न विधाओं मे सृजनशील रहते हुए दोनो क्षेत्रों में अच्छी खासी सक्रियता बरकरार रखी है और इन दोनों क्षेत्रों में प्रसिध्दी भी पाई है । हालाँकि इस तरह के प्रयास रामकुमार वर्मा सरीखे गिने चुने कुछ और भी साहित्यकारों,कलाकारों ने किये हैं लेकिन उनमें अधिकांश ने बाद के वर्षो में साहित्य या कला में से एक को ही अधिक तरजीह दी है। आप तकरीबन पांच दशकों से दोनों क्षेत्रों में अपनी सक्रियता कैसे बरकरार रख पाये ?



मैं कुछ बातें सबसे पहले स्पष्ट करना चाहूँगा। भले ही मैं पिछले पचास पचपन साल से साहित्य और कला दोनों से बराबर ओर लगातार जुड़ा रहा हूँ लेकिन मेरी इस दोहरी सृजनशीलता में अलग अलग फेज रहे हैं। पहली बात तो यह कि मैं खुद को मूलत: कलाकार मानता हूँ। पेंटिंग मेरा मनमाफिक विषय है । साहित्य का प्रवेश मेरे जीवन में दूसरी तरह से हुआ। साहित्य की शुरुआत का प्रमुख कारण आर्थिक था। यह अलग बात है कि साहित्य कि सम्भावनायें भी मेरे अन्दर थी ओर इसीलिए अपना परिवार चलाने के लिये पत्रिकाओं ओर प्रकाशकों की फरमाईश के हिसाब से साहित्य सृजित कर पाया। फिर धीरे धीरे मुझे यह भी आभास होने लगा कि फरमाइसी लोकप्रिय साहित्य के साथ साथ मैं गम्भीर साहित्य भी रच सकता हूं। दरअसल मेरे कई साहित्यिक मित्र जब तब इस दिशा मे मोडने के लिये लानत मलामत के जरिये प्रेरित भी करते रहते थे।



जिन दो हिन्दी पत्रिकाओं से मेरा सर्वाधिक जुडाव रहा उनके संपादकों धर्मवीर भारती (धर्मयुग) ओर कमलेश्वर (सारिका) से मेरे करीबी संबंध रहे। धर्मयुग से मेरा जुडाव नियमित कार्टून कलाकर के रूप में था जिसकी ढब्बू जी कार्टून सीरीज ने हिन्दी जगत में अदभुत लोकप्रियता हासिल की थी। सारिका में कुछ चर्चित कहानिओं के जरिये मैं कहानीकार के रूप में रूबरू हुआ।



प्रारंभिक दौर में साहित्य और कला को लेकर मेरा नजरिया कला के प्रति आत्मीय समर्पण वाला था । उन दिनों अपनी चित्रकारी को मूर्त रूप देने के लिए मेरे पास आर्थिक संसाधनों का अभाव था। और यह मुझे गवारा नहीं था कि अपने समकालीन कुछ अन्य कलाकारों की तरह मैं अपनी पेंटिंग्स को पैसे कमाने का जरिया बनाऊँ। इस काम के लिये मैने व्यवसायिक लेखन का सहारा लिया। पहले मैं केवल गुजराती मे लिखता था जिसका बाद मे हिन्दी मे अनुवाद होता था। इस दौर में मैंने कई उपन्यास लिखे जिनका साहित्य की दृष्टी से कोई खास महत्व नहीं है लेकिन उनमें से कई लोकप्रिय हुए ओर मेरी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन बने।



साहित्य का मेरा दूसरा दौर आप उसे मान सकते हैं जब मैने मूल रूप से हिन्दी मे लिखना शुरू किया । धीरे धीरे गुजराती का लेखन कम होता गया और हिन्दी का बढ्ता गया।



साहित्य का मेरा तीसरा दौर पिछले दस वर्षों से चल रहा है। यही वह दौर है जब मैं पूरे मनोयोग से गंभीर साहित्य को समर्पित हूँ। आजकल मेरी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ नहीं है और ऐसी आर्थिक आवश्यकतायें नही हैं कि अर्थोपार्जन के लिये मुझे व्यवसायिक लेखन करना पड़े। यह दौर ही मेरे साहित्य का सबसे महत्वपूर्ण दौर है जिसमें मैंने जितना साहित्य रचा है वह सब एक गंभीर साहित्यकार की संजीदगी के साथ लिखा है। शायद जीवन के इसी पडाव पर पहुँचकर मैं साहित्य ओर कला को समान नजरिये से आत्मसात कर पाया हूँ।



• गुजराती में कई साल लिखने के बाद हिन्दी में लिखने के लिये कौन से कारण प्रमुख थे ?



देखिये, गुजराती मेरी मूलभाषा जरूर है लेकिन मुंबई में रहते हुए हिन्दी , उर्दू, ओर अंग्रेजी से मेरा लगातार सम्पर्क रहा। जहाँ तक हिन्दी का प्रश्न है उसमें मेरी रूचि सबसे पहले देवकी नंदन खत्री की रचनाओं के कारण हुई। उन्हें तो कुछ आलोचक साहित्यकार भी नहीं मानते लेकिन मेरी सच्चाई यही है। हिन्दी ठीक से सीखने के बाद तो हिन्दी के और भी कई रचनाकारों को पढ़ा। धीरे धीरे हिन्दी में भी हाथ साफ होने लगा। उर्दू तो पारिवारिक परिवेश में भी काफी थी। धर्मयुग में धर्मवीर भारती के साथ हिन्दी के कई लेखकों से मिलने जुलने के सिलसिले चल निकले।और हिन्दी में लेखन शुरू हो गया।





हिन्दी में मौलिक लेखन का दूसरा कारण यह भी था कि हिन्दी का पाठक वर्ग गुजराती की तुलना में काफी व्यापक है। कई प्रदेशों में हिन्दी का बोलबाला है। मेरी कई गुजराती रचनाओं के हिन्दी अनुवाद भी काफी लोकप्रिय हुए। हिन्दी पत्रिकाओं के संपादकों और हिन्दी के प्रकाशकों की फरमाईश भी हिन्दी में लिखने का एक कारण बनी।





• कई कहानी संग्रह ओर उपन्यासों के अलावा आपका एक गजल संग्रह भी प्रकाशित हुआ है लेकिन आपने गजलें ओर कविताएँ ज्यादा नहीं लिखी। हिन्दी पाठक आपके कथाकार रूप से ही अधिक परिचित हैं।





साहित्य में मैं कथाकार ही हूं। कविता या गजल मेरी विधा नहीं । एक गजल संग्रह जरूर प्रकाशित हुआ है। बहुत पुरानी बात हो गयी यह भी। दर असल सच्चाई यह है कि इस संग्रह की गजलें मैंने उस समय लिखी थी जब मेरा मन साहित्य और कला दोनों से उचटा हुआ था। उन दिनों कुछ ऐसी मनस्तिथी थी कि न कोई नई कहानी या उपन्यास लिखने का मन था ओर न पेंटिंग बनाने में रूचि थी। एक तरह से टाईमपास जैसा कह सकते हैं इसे। कुछ लोगों ने ये गजलें पढ़कर थोड़ी बहुत तारीफ कर दी। उसी का परिणाम ये हुआ कि यह संग्रह छप गया। इस इकलोते संग्रह के बाद कभी गजल या कविता नहीं लिखी। केवल कहानी और उपन्यास ही लिखे। कविता मेरी विधा नहीं है।










Wednesday, March 31, 2010

उम्मीद-ए-रोशनी कायम है लेकिन भाई गाँधी से



कवि देवमणि पाण्डेय, कथाकार आर.के.पालीवाल, न्यायमूर्ति श्री चन्द्रशेखर धर्माधिकारी, डॉ. सुशीला गुप्ता

गांधी जी की प्रसिद्ध कृति हिन्द स्वराज पर संगोष्ठी का आयोजन
महात्मा गांधी से पूछा गया- क्या आप तमाम यंत्रों के ख़िलाफ़ हैं ? उन्होंने उत्तर दिया- मैं यंत्रों के ख़िलाफ़ नहीं हूँ मगर यंत्रों के उपयोग के पीछे जो प्रेरक कारण है वह श्रम की बचत नहीं है, बल्कि धन का लोभ है। इस लिए यंत्रों को मुझे परखना होगा। सिंगर की सीने की मशीन का मैं स्वागत करूँगा। उसकी खोज के पीछे एक अदभुत इतिहास है। सिंगर ने अपनी पत्नी को सीने और बखिया लगाने का उकताने वाला काम करते देखा। पत्नी के प्रति उसके प्रेम ने, ग़ैर ज़रूरी मेहनत से उसे बचाने के लिए, सिंगर को ऐसी मशीन बनाने की प्रेरणा दी। ऐसी खोज करके सिंगर ने न सिर्फ़ अपनी पत्नी का ही श्रम बचाया, बल्कि जो भी ऐसी सीने की मशीन ख़रीद सकते हैं, उन सबको हाथ से सीने के उबाने वाले श्रम से छुड़ाया। सिंगर मशीन के पीछे प्रेम था, इस लिए मानव सुख का विचार मुख्य था। यंत्र का उद्देश्य है- मानव श्रम की बचत। उसका इस्तेमाल करने के पीछे मकसद धन के लोभ का नहीं होना चाहिए।
यह रोचक प्रसंग महात्मा गांधी की चर्चित पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ का है जिसे प्रकाशित हुए सौ वर्ष हो गए हैं और अब पूरी दुनिया में इसके पुनर्मूल्यांकन का दौर चल रहा है। सुभाष पंत के सम्पादन में निकलने वाली दिल्ली की साहित्यिक पत्रिका शब्दयोग और मुम्बई की संस्था हिन्दुस्तानी प्रचार सभा के संयुक्त तत्वावधान मे हिन्द स्वराज की समकालीन प्रासंगिकता पर एक संगोष्ठी हिन्दुस्तानी प्रचार सभा के सभागार में सोमवार २२ मार्च २०१० को आयोजित की गई जिसकी अध्यक्षता न्यायमूर्ति श्री चन्द्रशेखर धर्माधिकारी ने की। एक समर्पित गाँधीवादी होने के साथ-साथ धर्माधिकारीजी ने दस सालों तक महात्मा गांधी के साथ आज़ादी के आंदोलन में सक्रिय भागीदारी भी की थी। महात्मा गांधी के ‘हिन्द स्वराज’ पर केंद्रित समाज सेवी संस्था योगदान की त्रैमासिक पत्रिका शब्दयोग के इस विषेशांक का परिचय कराते हुए संगोष्ठी के संचालक देवमणि पाण्डेय ने महात्मा गांधी के योगदान को अकबर इलाहाबादी के शब्दों में इस तरह रेखांकित किया- 


बुझी जाती थी शम्मा मशरिकी, मगरिब की आँधी से
उम्मीद-ए-रोशनी कायम है लेकिन भाई गाँधी

शब्दयोग के अतिथि सम्पादक प्रतिष्ठित कथाकार आर.के.पालीवाल ने इस अंक की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालते हुए कहा कि महात्मा गांधी के गुरु श्री गोपालकृष्ण गोखले ने ‘हिंद स्वराज’ को ‘पागलपन के किन्हीं क्षणों में लिखी किताब’ कहकर खारिज़ कर दिया था मगर विश्व प्रसिद्ध लेखक टॉलस्टाय को इसमें ‘क्रांतिकारों विचारों का पुंज’ दिखाई पड़ा और उन्होंने इसकी तारीफ़ करते हुए कहा कि यह एक ऐसी किताब है जिसे हर आदमी को पढ़ना चाहिए । पालीवालजी ने बताया कि ‘हिंद स्वराज’ के ज़रिए गाँधीजी ने पुस्तक लेखन में एक नया प्रयोग किया है। प्रश्नोत्तर शैली में लिखी गई इस पुस्तक में उन्होंने अपने विचारों से असहमति जताने वाले सभी लोगों को ‘पाठक’ के प्रश्नों में प्रतिनिधित्व दिया है। इस तरह उन्होंने उन सब संशयों, विरोधों और असहमति के स्वरों को एक साथ अपने उत्तरों से संतुष्ट करने की पुरज़ोर कोशिश की है जो गाँधीजी के समर्थकों, विरोधियों या स्वयं गाँधीजी के मन में उपजे थे । कवि शैलेश सिंह ने हिंद स्वराज के प्रमुख अंशों का पाठ किया । हिंदुस्तानी प्रचार सभा की मानद निदेशक डॉ. सुशीला गुप्ता ने अपने आलेख में हिंद स्वराज के प्रमुख बिंदुओं पर रोशनी डाली ।

न्यायमूर्ति चन्द्रशेखर धर्माधिकारी ने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि दुनिया के कई देशों में हिंद स्वराज की सौवीं जयंती मनाई जा रही है। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा से लेकर कई देशों के राष्ट्राध्यक्ष हिंद स्वराज में अपनी आस्था व्यक्त कर चुके हैं । मेरे विचार से हर हिंदुस्तानी को महात्मा गांधी की इस किताब को अवश्य पढ़ना चाहिए और इस पर चिंतन करना चाहिए । गांधी जी ने अगर मशीनों, वकीलों और डॉक्टरों के खिलाफ़ लिखा तो उनके पास इसके लिए तर्कसंगत आधार भी था ।

कार्यक्रम की शुरुआत में सुश्री चंद्रिका पटेल ने गांधी जी का प्रिय भजन ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए’ प्रस्तुत किया । हिंदुस्तानी प्रचार सभा के संयुक्त मानद सचिव सुनील कोठारे ने आभार व्यक्त किया । इस आयोजन में मुंबई के साहित्य जगत से कथाकार डॉ. सूर्यबाला, कथाकार कमलेश बख्शी, कवि अनिल मिश्र, कथाकार ओमा शर्मा, कवि तुषार धवल सिंह, कवि ह्रदयेश मयंक, कवि हरि मदुल, कवि रमेश यादव, डॉ. रत्ना झा और महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी के कार्यकारी अध्यक्ष श्री नंदकिशोर नौटियाल मौजूद थे । अमेरिका से पधारी कवयित्री रेखा मैत्र और मुख्य आयकर आयुक्त द्वय श्री बी.पी. गौड़ और श्री एन.सी. जोशी ने भी अपनी उपस्थिति से कार्यक्रम की गरिमा बढ़ाई । कार्यक्रम का समापन राष्ट्रगान से हुआ। अंत में संगोष्ठी के संचालक कवि देवमणि पाण्डेय ने महात्मा गाँधी पर लिखी मुम्बई के वरिष्ठ कवि प्रो.नंदलाल पाठक की कविता की कुछ लाइनें उद्धरित कीं-

महामानव ! तुम्हें जो देवता का रूप देने पर उतारू हैं
कदाचित वे यहाँ कुछ भूल करते हैं
तरसते देवता जिसकी मनुजता को , उसे हम देवता बनने नहीं देंगे
न जब तक सीख लेता विश्व जीने की कला तुमसे
तुम्हें जीना पड़ेगा आदमी बनकर महामानव

एक उल्लेखनीय बात यह भी है कि गांधीजी की दुर्लभ पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ को शब्दयोग ने अपने इस विशेषांक में पूरा प्रकाशित कर दिया है। शब्दयोग का संकल्प है कि ‘हिंद स्वराज’ को कम से कम दो हज़ार विद्यार्थियों तक ज़रूर पहुँचाया जाए।
सम्पर्क : आर.के.पालीवाल, बी-2, इंकमटैक्स कॉलोनी, पेडर रोड, मुम्बई – 400 026 , मो. 099309-89569 , ईमेल : rkpaliwal1986@gmail.com

Wednesday, January 27, 2010

ट्रैफिक जाम


ट्रैफिक जाम

महानगर में

बाल बच्चों को भी नहीं दे पाते

उतना समय

जितना बचाकर रखना पड़ता है ट्रैफिक जाम के लिए !


चाहे कटौती करनी पड़े

कसरत वर्जिश- योगा और पूजा में

छोड़नी पड़ें

रिश्ते नातेदारी की बेहद जरूरी औपचारिकताएं

किसी पर कोई रियायत नहीं करता ट्रैफिक

आप चाहे उच्च न्यायलय के न्यायाधीश हों,

मिलनातुर युवाप्रेमी हों या दम तोड़ते मरीज़ !

महानगर में बरसो रहते रहते

समझदार हो जाते हैं बहुत से लोग

वे घबराते नहीं ट्रैफिक जामों से

न गाली गलौच करते उस पर

सहजता से चुन लेते हैं कई जरूरी काम उसी समय के लिए

या तो हाथों में रखते है कोई प्रिय पुस्तक पढ़ने के लिए

या साज-श्रृंगार कर लेते हैं जाम हुए ट्रैफिक के व्यस्त चौराहों पर !


मुंबई दिल्ली के लम्बे प्रवास में

जाम हुए ट्रैफिक के प्रशांत महासागर में तैरते हुए

मैंने भी खोजी हैं चंद कविताए और कहानियाँ !