Thursday, April 8, 2010

आबिद सुरती और आर .के.पालीवाल की अंतरंग वार्ता - 3


बाकी भाषाओं के साहित्य से गुजराती भाषा में अनुवाद की स्थिती कैसी है – विशेषत: हिन्दी से गुजराती में अनुवाद

गुजराती में वैसे तो सभी भाषाओं से अनुवाद हुए हैं, लेकिन सबसे ज्यादा अनुवाद बंगला से हुए हैं । शरत, बंकिम और टैगोर का तो लगभग संपूर्ण साहित्य गुजराती में उपलब्ध है । इसी तरह मराठी का भी अच्छा खासा अनुवाद हुआ है गुजराती में । जहाँ तक मेरी जानकारी है गुजराती से हिन्दी में बहुत अधिक अनुवाद नहीं हुए – वैसे जैसे बंगला और मराठी भाषा से हुए हैं।

हिन्दी के अनुवाद इन दो भाषाओं की तुलना में कम जरूर हैं – लेकिन प्रेमचंद आदि की अधिकांश रचनाए गुजराती में अनुवादित हो चुकी हैं । बाद के लेखकों के उतने अनुवाद नही हुए ।

अनुवाद के मामले में हिन्दी वाले ज्यादा फायदे में रहते हैं । साहित्य अकादमी लगभग सभी भाषाओं के अनुवाद नियमित रुप से हिन्दी में उपलब्ध कराती है ।



आपकी कई कहानियों ओर उपन्यासों में घर परिवार, समाज ओर पुलिस प्रशासन की विद्रूपता चित्रित हुई है। ज्यादातर कहानियों में नायक कम खलनायक अधिक हैं । क्या महानगरीय जीवन, जिसका चित्रण आपकी अधिसंख्य कहानियों में हुआ है, में सामाजिक स्तिथियाँ वास्तव में इतनी विद्रूप हो गई हैं जैसी आपके कथा संसार में दिखाई देती हैं ?

यह तो कड़वी सच्चाई है कि महानगरों का, खासकर मुम्बई का, सामाजिक जीवन सीधा सहज और सरल नहीं है । इसमें तरह तरह की कुटिलताएं, विद्रूपतायें भरी पड़ी हैं । लेकिन मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ कि मेरी ज्यादातर कहानियों के पात्र खलनायक हैं। हाँ, कुछ कहानियों में ऐसा मिल सकता है । आपका इशारा किन कहानियों की तरफ है –



आपके ताजा कहानी संग्रह ‘आतंकित’ की ही कहानियों को देखें तो इस संग्रह की शीर्षक कहानी ‘आतंकित’ का भी मुख्य पात्र एक खलनायाक किस्म का संवेदनहीन राजनेता है। इस राजनेता के पुलिसिया बाडीगार्ड भी उसी की तरह हैं। इस राजनेता ओर उसकी सुरक्षा फोज के कालोनी मे आने से पूरे परिसर की शांति भंग हो जाती है।ऐसे ही ओर भी कई कहानियों में भी इसी तरह के पात्र हैं।



जहां तक आतंकित कहानी का विषय है यह एक यथार्थ है। ऐसी घटना का मैं प्रत्यक्ष गवाह रहा हूं। इस कहानी मे नेता ओर पुलिसवालों के अलावा जितने भी पात्र हैं वे सभी शांतिप्रिय नागरिक हैं। कहानी का पति अच्छा है, बीबी अच्छी है ओर कालोनी के लोग अच्छे हैं।



लेकिन ये अच्छे पात्र कहानी के मुख्य पात्र नही हैं। इस से तो मैं भी सहमत हूं कि संग्रह की यह महत्वपूर्ण कहानी है। इसमे न कहीं अतिशयता है ओर न काल्पनिकता है। पुलिस की विद्रूपता की बात करें तो इसी संग्रह की सबसे लम्बी कहानी कोटा रेड मे भी आपने पुलिस की संवेदनहीनता का कच्चा चिट्ठा खोला है। इसके अलावा आपके नये उपन्यास आदमी ओर चूहे मे भी पुलिस का वैसा ही बल्कि उससे भी भयानक चेहरा उजागर होता है। विद्रूपता की इस कडी को थोडा ओर आगे बढायें तो कई ओर कहानियों मसलन बैडरूम कहानी मे भी घर के तीन प्राणी हैं। तीनों त्रासद जिन्दगी जी रहे हैं। घर घर नही है तीन बैडरूम हैं- तीन सदस्यों की तीन अलल थलग दुनियाओं के मूक गवाह । ऐसे ही तीसरी आंख कहानी मे भी पूरा परिवार घर के कमाऊ सदस्य की आंख मे धूल झोंक रहा है। इस परिवार के सभी पात्र यहां तक कि नौकर तक भी मक्कार हैं।



(हँसते हुए) लगता है आपने मेरी काफी कहनियाँ / उपन्यास पढ़ लिए हैं । अब मैं यह तो स्वीकार करता हूँ कि मेरी कुछ ... (हँसकर)....चलिये... कई कहानी मान लेता हूँ ... ऐसी हैं जहाँ प्रमुख पात्र घूर्त, मक्कार हो सकते हैं । लेकीन मैं यह स्पष्ट करना चाहूँगा कि ये सभी कहानियाँ लिखते समय भी मेरी नजर चुन चुनकर खलनायक किस्म के पात्रों को कहानी में लाने पर कभी नहीं रही। जैसे मैंने ‘आतंकित’ के बारे में बताया वैसे ही बाकी कहानियों में भी खराब पात्रों के माध्यम से मैने कुछ अन्य चीत्रों को भी पकड़ने का प्रयास किया है ।

उदाहरण के तौर पर ‘बैडरूम’ कहानी में मेरा ध्यान मुंबई जैसे महानगरों में आवास की समस्या पर नही था । परिवार के तीनों पात्र एक दूसरे को न चाहते हुए भी साथ रहने को मजबूर हैं । वे अलग अलग घर लेकर नहीं रह सकते । बेटा अपनी बूढी मां के लिये अपनी बीबी को उसके प्रेमी सहित रहने का आग्रह करता है ताकि अपाहिज मां को उनकी टूट चुकी शादी की खबर से मानसिक आघात न हो। ऐसे में उन्होने अपने अपने बैडरुम में ही अपनी अपनी दुनिया बना ली है ।

इसी तरह तीसरी आंख कहानी लिखने के पीछे भी मेरा मंतव्य यह नहीं था कि मैं ऐसे परिवार का चित्रण करुं जिसमें मुखिया को छोड़कर बाकी तमाम पात्र गड़बड़ हों । दर असल इस कहानी को मैंने यह दिखाने के लिये गढा था कि परवरदिगार ने हमें जो सब कुछ न देखने की अक्षमता दी है वह उसका मानव जाति पर बडा उपकार है। यदि हम लोग सबके मन मे छिपी भावनाओं को पढने मे सक्षम होते तब यह जीवन कितना दुरूह हो जाता ।

मैं अपनी कुछ ऐसी कहानियों का जिक्र करना चाहूंगा जिसमे आप को बहुत अच्छे पात्र भी मिलेंगे । जैसे सेंटाक्लाज वाली कहानी । उन्नीस सो बानवे के राम मन्दिर बाबरी मस्जिद विवाद की प्रष्ठ्भूमि पर लिखे उपन्यास कथा वाचक का नायक तो एक विलक्षण पात्र है। वह एक अदना सा पुलिस कांस्टेबल है। वह अपने कर्तव्य के प्रति इतना ईमानदार है कि कानून हाथ मे लेने वाले लाखों जुनूनी लोगों की भीड से लोहा लेने के लिये इकलोता खडा रहता है। अपनी जान की परवाह भी नहीं करता।

यह उपन्यास मैने एक पत्रिका मे प्रकाशित एक छोटी सी रिपोर्ट से प्रभावित होकर लिखा था। मैं इस बहादुर सिपाही की हिम्मत से इतना प्रभावित हुआ कि इस महानायक के सम्मान मे पूरा उपन्यास लिख गया ।

(हंसकर).....अब तो आप भी स्वीकार करेंगे कि मेरी अधिसंख्य कहानियों मे खलनायक किस्म के पात्र नही हैं ।

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