Monday, April 19, 2010

आबिद और मैं










कई सालों से जानता हूं आबिद सुरती को

तब से

जब से पढना शुरू किया था धर्मयुग।


आबिद मतलब धर्मयुग

आबिद मतलब ढब्बू जी।



कुछ साल पहले तक

बस इतना ही परिचय था

आबिद सुरती से।



फिर एक शामे अवध

दो हजार पांच या छै: की

इस वक्त ठीक से याद नहीं सही तिथी

एक आम सी सर्द सी शाम की

एक आम सी अदबी रस रंजन पार्टी थी

अफसर कथाकार विभूति नारायण राय के घर

जो खास बनी आबिद सुरती से

रूबरू मुलाकात के बाद।



उस शाम आबिद

ढब्बू जी नहीं थे

थोडे धीर गंभीर से

बीच बीच मे मंद मंद मुस्कुराते

मानो रंग गये हों लखनवी अंदाज में

धीमी आवाज में बतियाते

और उससे भी धीमी रफ्तार से

विस्की की चुस्कियां लेते आबिद।



फिर दिल्ली की एक गुनगुनी दोपहर

पुस्तक मेले का कोई स्टाल

अचानक मिले आबिद

मेरी तरह ही मेले की भीड में भटकते

खोजते कोई खास किताब

किताबों के महासगर में।



बस यहीं आकर अटक गयी थी

हमारी मुलाकात की सूई

तीन चार साल कोई बात नहीं

कोई पत्राचार कोई मुलाकात नहीं।



फिर बीते साल दो हजार नौ का अंतिम महीना

शनिवार की एक सधारण सी शाम

एक साथ गुजारी हम दौनों ने

मुंबई के प्रेस क्लब की छत पर

रस रंग के साथ दुनिया भर के

विविध प्रसंगो पर बात करते हुए।



उस दिन कफी कुछ जाना आबिद को

जितना जाना था पिछले तीस वर्षों मे

उससे भी ज्यादा जाना उन तीन घंटों में।

फिर तो शायद ही कोई शनिवार ऐसा बचा होगा



जब शाम को प्रेस क्लब में न बैठे हों हम दोनों।

इस बीच पढी आबिद की दर्जनों कहानियां

कई उपन्यास्, गजलें,यात्रा वृतांत और विविध लेख

देखा परखा जाना आबिद को बहुत करीब से।



फिर भी लगता है

कहां जान पाया आबिद को अभी

अभी तो बहुत कम जानता हूं आबिद को।



आबिद को जानना इतना आसान कहां

उसे जानने के लिये करनी पडेगी और मशक्कत

पढनी पडेंगी उसकी लिखी अस्सी से अधिक किताबें

देखनी होंगी हजारों पेंटिंग आबिद की

एक बार फिर से दोडानी पडेगी नजर

पच्चीस बरस लम्बी ढब्बू जी कार्टून स्ट्रिप पर।



आबिद को जानने के लिये इतना भर काफी नहीं

उसके साथ घूमना पडेगा मीर रोड की गलियों में

कई बैठक करनी पडेंगी प्रेस क्लब की छत पर

पीनी पडेगी सस्ती डी एस पी ब्लैक विस्की साथ बैठकर।



आप किसी आदमी को जान सकते हैं थोडी देर मे

लेकिन बच्चों का मन जानने के लिये

गुजर जाती है उम्र मांओ की।



आबिद भी तो बच्चा है अभी

और बच्चा भी कोई दूध पीता नही

पके बाल वाला दाढी मूंछ वाला

पचहत्तर सिर्फ पचहत्तर साल का बच्चा।



जब तक मिलता रहा आबिद से दूर दूर से

लगता था आबिद को जानता हूं मैं

अब जब हमारी मुलाकात हो रही हैं जल्दी जल्दी

लगता है बहुत कम जानता हूं आबिद को।

आबिद अगर बच्चा है तो क्या

मेरी भी जिद है बच्चों जैसी

एक दिन अच्छी तरह जानकर ही रहूंगा आबिद को।



अभी तो बहुत कम जानता हूं आबिद को

अभी तो बहुत कुछ जानना है आबिद के बारे मे।


 

Wednesday, April 14, 2010

आबिद सुरती और आर .के.पालीवाल की अंतरंग वार्ता - 4

आपकी कुछ कहानियों/उपन्यासों में अधेड उम्र के पुरूषों का उनसे काफी कम उम्र की लडकियों/स्त्रियों के प्रति गहरा आकर्षण ओर दैहिक संबंधों का चित्रण है।एक तरह से लेखक ऐसे संबंधों का पक्ष लेता भी दिखता है जिन्हें समाज अस्वीकृत करता है । वे संबंध आपके लेखन मे सहज दिखते हैं।

आपका आशय किन कहानियों से है ।

जैसे आपकी बेहद चर्चित कहानी कोरा कैनवास जिसके हंस मे प्रकाशित होने पर पत्रों के माध्यम से काफी प्रतिक्रियाएं हुई थी लेखक और पाठक वर्ग में । इस कहानी को प्रकाशित करते समय हँस के यशस्वी संपादक राजेन्द्र यादव ने इस तरह की वैश्विक कथा सामग्री का संक्षिप्त इतिहास भी बताया था अपने संपादकीय में । यही विषय आपके उपन्यास ‘तितली के पंखो पर उसका नाम’ में हैं और ऐसी ही स्थितियाँ आपके नाटक ‘ढलती उम्र के साये’ में हैं ?



देखिये आपने जो तीन उदाहरण दिये हैं उनमें अधेड उम्र के पुरुष का कम उम्र की लड़की या औरत से प्रेम संबंध दिखाया है । इन सबमें क्या आपको ऐसा लगता है कि ये कोरी कल्पना हैं। मैंने ऐसे कई सम्बन्ध देखे हैं । कोरा कैनवास और ‘तितली के पंखो पर उसका नाम’ मेरी अपनी डायरी पर आधारित है ताकि उसकी विश्वसनीयता पर कोई संदेह न हो। यह एक प्राकृतिक सच है । मैं यह तो नहीं कहता कि अधेड पुरूष ही कम उम्र की महिलाओं के प्रति आशक्त होते हैं या लड़कियाँ अपने से उम्रदराज पुरुष के प्रति आशक्त होती हैं । मेरे कहने का तात्पर्य केवल इतना है कि समाज में कई बार ऐसी परिस्थितियाँ बन जाती हैं जब उम्र के फासले इस तरह के संबंधो में अवरोघक नहीं होते । और जब विवाहित जीवन का रोमांस सूखने लगता है तब किसी स्त्री-पुरूष की आशक्ति ऐसे साथी या सहकर्मी से हो सकती है जिसकी उम्र उससे काफी कम या काफी अधिक है । इसका मतलब यह नहीं है इस तरह के संबध बहुतायत में है । यह तभी संभब है जब दोनों पक्ष इस स्थिती को सहजता से लेते हैं । और मेरा कहना है कि कई बार ऐसी संभावनाए बन जाती हैं ।

कोरा कैनवास कहानी पर यूँ तो कई तरह की प्रतिक्रियायें हुई थी । कुछ पाठकों ने इसे बेहद सराहा था, कुछ ने इसे अश्लील कहकर खारिज किया था लेकिन लेखिका जया जादवानी ने इस पर संतुलित प्रतिक्रिया व्यक्त की थी । कहानी की सराहना के साथ साथ उन्होंने कहा था कि इसमें लेखक ने नायिका के मन को ही खोला है, नायक के मन को वैसे नहीं खोला । मैं इसमें यह और जोड़ना चाहूँगा कि कहानी का नायक विवाहित है। उसकी स्वस्थ सुंदर पत्नि है । लेकिन कहानी न पत्नि की मनस्थिती के बारे में कुछ बताती और न नायक के मन में पत्नी के प्रति जिम्मेदारी के भाव से बचने की मानसिक उथल पुथल का चित्रण करती है । यह कहानी का अधूरापन लगता है ।


जैसे मैं पहले भी कह चुका हूँ , इस कथा का मूलतत्व एक अधेड़ विवाहित पुरूष और एक युवा लड़की के बीच पनपा रिश्ता है, जिसे डायरी के माध्यम से शब्द दिये हैं। इसके विशिष्ट शिल्प के कारण इन दो प्रमुख पात्रों के अलावा बाकी पात्रो और घटनाओं का खास जिक्र नहीं है । क्योकि डायरी इस खास संबंध के बारे में ही लिखी गई है जो सामान्य डायरी लेखन से अलग इसी रिश्ते पर केंद्रित है । इसमें नायक की पत्नी का जिक्र तो आता ही है और यह संकेत भी हैं कि पति-पत्नी के रिश्ते मे कोई खास ऊष्मा नहीं है । इसीलिए इस तरह का रिश्ता जुड़ता है ।

जहाँ तक पाठ्कों की तरह तरह की प्रतिक्रियायें हैं – वे पाठकों की अपनी सोच और अपने नजरिये से कहानी को पढ़ने के कारण बनती हैं । जैसे लेखक लिखते समय कोई नजरिया रखता है वैसे ही पाठक पढ़ते समय अपने नजरिये से कहानी को परखते हैं ।


आपकी कहानियों में कई तरह के शिल्प मिलते हैं । हालांकि ज्यादातर कहानियाँ यथार्थवादी हैं । उनमें से कई में पत्रकार सरीखी पैनी दृष्टी दिखती है जो एक ही घटना के कई पहलुओ को बारीकी से सीधे सीधे पाठकों के सामने रखता है । ‘शोफर’ कहानी में यात्रा वृतांत जैसा रस है । इन सीधी सपाट कहानियों के उलट ‘बिज्जू’ जैसी कुछ ऐसी कहानियाँ हैं जिनमें गहरे प्रतीकों का इस्तेमाल हुआ है । ‘कैनाल’ को भी इसी श्रेणी में रखा जाएगा । शिल्प की विविधता क्या इसीलिए संभव हो पाई कि आप कई विधाओं के हरफन मौला व्यक्ति हैं – मेरा मतलब पत्रकारिता, पेंटिंग, व्यंग, कार्टूनिस्ट, घुमक्कड, फक्कड – और और भी न जाने क्या-क्या ... जैसे पानी बचाने की मुहिम में जुटे समाज सेवी पलम्बर !

आप की बात काफी हद तक सही हो सकती है । मैंने कुछ काम अपने मनमाफिक किये हैं और कुछ रोजी रोटी के लिए । जहाँ तक पत्रकारिता का प्रश्न है – इस पेशे से मेरा सीधा जुडाव नहीं रहा । पत्र पत्रिकाओं के कार्टूनिस्ट की भूमिका और बहुत से पत्रकारों से करीबी दोस्ती के चलते पत्रकारिता से अप्रत्यक्ष जुडाव जरुर रहा है । कई दिशाओ में हाथ पैर चलाने के कुछ फायदे भी होते हैं । कहानियों में विविधता तो सकारात्मक लक्षण ही हुआ (हंसकर)

साहित्यकारों और कलाकारों के सामाजिक सरोकारों और उनकी सामाजिक सक्रियता को लेकर शुरू से दो मत रहे हैं । आप लेखक और कलाकार की सामाजिक सक्रियता को किस हद तक जरुरी समझते हैं ?

पहली बात तो यह कि साहित्यकार या कलाकार को जो सबसे अच्छा लगे वही करना चाहिए । यह चीज बाकी लोगों पर भी लागू होती है । दूसरी, सबकी अपनी व्यक्तिगत परिस्थितियाँ होती हैं । जहाँ तक मेरी अपनी बात है – मैंने शुरुवाती तीस साल तक फरमाईस के अनुसार लेखन किया । उस समय मेरे लिए साहित्यिक या सामाजिक सरोकार से ज्यादा घर परिवार की जिम्मेदारी हावी थी ।


पिछ्ले दस साल से मैंने जो भी लिखा है वह विशुध्द साहित्यिक सरोकार से जुड़कर लिखा है । आगे भी जो लेखन होगा वह इसी तरह का होगा । इस समय मेरी परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि मै सामाजिक सरोकारों से भी जुड़ सकता हूँ । अच्छा भी यही है कि अगर किसी साहित्यकार या कलाकार की पारिवारिक परिस्थितियाँ सामाजिक सरोकारों में सक्रियता से जुड़ने की छूट देती हैं तो उन्हे जरूर आगे आना चाहिए ।


जहाँ तक मेरी सामाजिक सक्रियता और सरोकारों का सवाल है – इधर मैंने नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए बच्चों की सचित्र रोचक पुस्तक माला के लिए एक किताब लिखी है –बुध्द 2500 साल बाद क्यों मुस्कुराये । इस किताब के माध्यम से मैंने एक अनूठा प्रयोग किया है जिसमें अलग-अलग प्रांत से अलग-अलग धर्म के बच्चों के अलग-अलग अंग भारत भ्रमण पर निकलते हैं । ये अंग एक दूसरे से मिलकर एक सुंदर मानव की रचना करते हैं । यह मानव बुध्द के सपने का महा मानव है । आज के भारत को ऐसे ही मनुष्य की आवश्यकता है ।


घुमक्कडी के साथ साथ सांप्रदायिक सदभाव और एकता की आवश्यकता को रोचक अंदाज में प्रस्तुत किया है आपने । मैंने पढी है यह पुस्तिका । बुध्द के मुस्कुराने को बड़ा सुंदर अर्थ दिया है आपने । बच्चों के लिए इस तरह की पुस्तकें बहुत जरूरी हैं । लेकिन दुर्भाग्य से इसकी खासी कमी है ।

अब मैंने इसी तरह के लेखन और कामों की शुरूआत की है । हमारी पानी बचाओ मुहिम भी धीरे-धीरे लोकप्रिय हो रही है । पानी, प्रकृति और पर्यावरण के महत्त्व के प्रति बच्चों और शहरियों को जागरूक करना चाहिए । हमारी संस्था कई कालोनियो के नलो से रिसते पानी की बरबादी रोकने के लिए मुफ्त पलम्बर की सुविधा उपलब्ध कराती है । इसके प्रचार प्रसार में कुछ फिल्मी सितारों सहित कई स्कूलों के बच्चे भी जुड़े हैं ।

प्रकृति और पर्यावरण पर भी कुछ लोग बड़ी संजीदगी से काम कर रहे हैं । कुछ लिखकर, कुछ दूसरी तरह से । हाल ही में मैंने अंग्रेजी लेखिका मुरियन ककानी की वन, वन्यजीवन और पर्यावरण संबैधित बच्चों की अदभुत किताबें देखी हैं । वे ‘इकोलाजिकल टेल्स’ सीरीज के अंतर्गत किताबें प्रकाशित कर रही हैं। ऐसे लेखकों का काम ठीक से सामने आना चाहिए ।

आपने कहा कि कला को मैंने व्यवसायिक नहीं बनने दिया, हमेशा अपनी इच्छानुसार ही पेंटिग्स बनाई । आजकल कला का अच्छा खासा बाजार है जो लेखन से कई गुणा फायदेमंद है । एम.एफ.हुसैन की एक एक पेंटिंग करोडों में बिकती है ! जब लेखन व्यवसायिक हो सकता है तब कला से अर्थोपार्जन में वैसा परहेज क्यूँ !



मेरा मतलब यह नहीं कि पेंटिंग बेचना गलत है । आपने एम.एफ.हुसैन की बात की । उनकी सच्चाई यह है कि उन्हें कला से अधिक मार्केटिंग की कला आती है । किस तरह चर्चा में रहा जाता है और कैसे मीडिया, विशेष्ररूप से कला समीक्षकों की जेबें गर्म करके अपनी सामान्य कला के भी तारीफों के पुल बांधॅ जाते हैं । मैं यह काम नही कर सका। एक बात और है मेरे साथ । मैं यह नहीं कर सकता कि मेरी कोई पेंटिंग यदि ज्यादा पसंद आऐ लोगों को तो उनकी फरमाईश पर मैं दनादन वैसी ही पैंटिंग बनाता रहूँ । हुसैन बार बार घोड़ॉ वाली पैंटिंग बना सकते हैं – मुझसे यह नहीं हो सकता ।

जहाँ तक कला की मार्केटिंग की बात है उससे तो मैं सहमत हो सकता हूँ । बल्कि कई बार सोचत्ता हूँ कि कला समीक्षकों पर कुछ खर्च करके प्रचार प्रसार करता तो बेहतर होता । और ज्यादा लोग मुझे जानते । आमदनी भी ज्यादा होती । लेकिन दूसरी चीज मैं कभी नहीं कर सकता । एक ही तरह की पेंटिंग बार बार थोक में नहीं बना सकता । भले ही उसके लिए अमीर ग्राहक तगडी रकम देने को तैयार हों । तब भी नहीं ।

जहाँ तक मेरी जानकारी है अपनी पेंटिंग की मार्केटिंग का काम पिकासो ने भी कुशलता से किया था और उनके बाद के भी कई कलाकरों ने किया है । लेकिन पिकासो की कला में दम भी था और विविधता भी थी । वह शुध्द व्यवसायी नहीं था ।

एम.एफ.हुसैन के चर्चित घोडों की तरह आपकी कौन-सी पेंटिंग ज्यादा सराही गई हैं ।

मैंने मिरर कोलाज पर काफी काम किया है । उसकी चर्चा और सराहना भी बहुत हुई । लेकिन बाद में उसे भी मैंने बार-बार नहीं दोहराया । (हँसकर) उसे मैंने घोडा बनाकर नहीं दौडाया ।

आप अपनी आत्मकथा कब लिख रहे हैं। लिखेंगे भी या आपकी जीवन गाथा किसी दूसरे लेखक को लिखनी पडेगी।

अपने उपन्यास मुसलमान में मैंने अपनी आत्मकथा तो पहले ही लिख दी है । आत्मकथात्मक उपन्यास लिखने के बाद अलग से आत्मकथा लिखने की आवश्यकता महसूस नहीं होती ।

अभी तो ‘बहत्तर साल का बच्चा’ सिर्फ पचहत्तर साल का बच्चा हुआ है । भविष्य की कुछ महत्वाकांक्षी योजनाएं भी होंगी ।

यदि पूरी हो सकी तो एक बडी तीव्र इच्छा है – अपने उपन्यास काले गुलाब पर फिल्म बनाने की । वैश्याओं के जीवन और उनको समाज से जोडने की पृष्ठ्भूमि है इस उपन्यास की। मुझे उसकी थीम बहुत प्रिय है । देखते हैं यह इच्छा पूरी होती है या नहीं ।

हम उम्मीद करते हैं कि आपकी इच्छा जरूर पूरी होगी और जल्द ही हमें आपकी एक और विधा के दर्शन होंगे – आमीन !

Thursday, April 8, 2010

आबिद सुरती और आर .के.पालीवाल की अंतरंग वार्ता - 3


बाकी भाषाओं के साहित्य से गुजराती भाषा में अनुवाद की स्थिती कैसी है – विशेषत: हिन्दी से गुजराती में अनुवाद

गुजराती में वैसे तो सभी भाषाओं से अनुवाद हुए हैं, लेकिन सबसे ज्यादा अनुवाद बंगला से हुए हैं । शरत, बंकिम और टैगोर का तो लगभग संपूर्ण साहित्य गुजराती में उपलब्ध है । इसी तरह मराठी का भी अच्छा खासा अनुवाद हुआ है गुजराती में । जहाँ तक मेरी जानकारी है गुजराती से हिन्दी में बहुत अधिक अनुवाद नहीं हुए – वैसे जैसे बंगला और मराठी भाषा से हुए हैं।

हिन्दी के अनुवाद इन दो भाषाओं की तुलना में कम जरूर हैं – लेकिन प्रेमचंद आदि की अधिकांश रचनाए गुजराती में अनुवादित हो चुकी हैं । बाद के लेखकों के उतने अनुवाद नही हुए ।

अनुवाद के मामले में हिन्दी वाले ज्यादा फायदे में रहते हैं । साहित्य अकादमी लगभग सभी भाषाओं के अनुवाद नियमित रुप से हिन्दी में उपलब्ध कराती है ।



आपकी कई कहानियों ओर उपन्यासों में घर परिवार, समाज ओर पुलिस प्रशासन की विद्रूपता चित्रित हुई है। ज्यादातर कहानियों में नायक कम खलनायक अधिक हैं । क्या महानगरीय जीवन, जिसका चित्रण आपकी अधिसंख्य कहानियों में हुआ है, में सामाजिक स्तिथियाँ वास्तव में इतनी विद्रूप हो गई हैं जैसी आपके कथा संसार में दिखाई देती हैं ?

यह तो कड़वी सच्चाई है कि महानगरों का, खासकर मुम्बई का, सामाजिक जीवन सीधा सहज और सरल नहीं है । इसमें तरह तरह की कुटिलताएं, विद्रूपतायें भरी पड़ी हैं । लेकिन मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ कि मेरी ज्यादातर कहानियों के पात्र खलनायक हैं। हाँ, कुछ कहानियों में ऐसा मिल सकता है । आपका इशारा किन कहानियों की तरफ है –



आपके ताजा कहानी संग्रह ‘आतंकित’ की ही कहानियों को देखें तो इस संग्रह की शीर्षक कहानी ‘आतंकित’ का भी मुख्य पात्र एक खलनायाक किस्म का संवेदनहीन राजनेता है। इस राजनेता के पुलिसिया बाडीगार्ड भी उसी की तरह हैं। इस राजनेता ओर उसकी सुरक्षा फोज के कालोनी मे आने से पूरे परिसर की शांति भंग हो जाती है।ऐसे ही ओर भी कई कहानियों में भी इसी तरह के पात्र हैं।



जहां तक आतंकित कहानी का विषय है यह एक यथार्थ है। ऐसी घटना का मैं प्रत्यक्ष गवाह रहा हूं। इस कहानी मे नेता ओर पुलिसवालों के अलावा जितने भी पात्र हैं वे सभी शांतिप्रिय नागरिक हैं। कहानी का पति अच्छा है, बीबी अच्छी है ओर कालोनी के लोग अच्छे हैं।



लेकिन ये अच्छे पात्र कहानी के मुख्य पात्र नही हैं। इस से तो मैं भी सहमत हूं कि संग्रह की यह महत्वपूर्ण कहानी है। इसमे न कहीं अतिशयता है ओर न काल्पनिकता है। पुलिस की विद्रूपता की बात करें तो इसी संग्रह की सबसे लम्बी कहानी कोटा रेड मे भी आपने पुलिस की संवेदनहीनता का कच्चा चिट्ठा खोला है। इसके अलावा आपके नये उपन्यास आदमी ओर चूहे मे भी पुलिस का वैसा ही बल्कि उससे भी भयानक चेहरा उजागर होता है। विद्रूपता की इस कडी को थोडा ओर आगे बढायें तो कई ओर कहानियों मसलन बैडरूम कहानी मे भी घर के तीन प्राणी हैं। तीनों त्रासद जिन्दगी जी रहे हैं। घर घर नही है तीन बैडरूम हैं- तीन सदस्यों की तीन अलल थलग दुनियाओं के मूक गवाह । ऐसे ही तीसरी आंख कहानी मे भी पूरा परिवार घर के कमाऊ सदस्य की आंख मे धूल झोंक रहा है। इस परिवार के सभी पात्र यहां तक कि नौकर तक भी मक्कार हैं।



(हँसते हुए) लगता है आपने मेरी काफी कहनियाँ / उपन्यास पढ़ लिए हैं । अब मैं यह तो स्वीकार करता हूँ कि मेरी कुछ ... (हँसकर)....चलिये... कई कहानी मान लेता हूँ ... ऐसी हैं जहाँ प्रमुख पात्र घूर्त, मक्कार हो सकते हैं । लेकीन मैं यह स्पष्ट करना चाहूँगा कि ये सभी कहानियाँ लिखते समय भी मेरी नजर चुन चुनकर खलनायक किस्म के पात्रों को कहानी में लाने पर कभी नहीं रही। जैसे मैंने ‘आतंकित’ के बारे में बताया वैसे ही बाकी कहानियों में भी खराब पात्रों के माध्यम से मैने कुछ अन्य चीत्रों को भी पकड़ने का प्रयास किया है ।

उदाहरण के तौर पर ‘बैडरूम’ कहानी में मेरा ध्यान मुंबई जैसे महानगरों में आवास की समस्या पर नही था । परिवार के तीनों पात्र एक दूसरे को न चाहते हुए भी साथ रहने को मजबूर हैं । वे अलग अलग घर लेकर नहीं रह सकते । बेटा अपनी बूढी मां के लिये अपनी बीबी को उसके प्रेमी सहित रहने का आग्रह करता है ताकि अपाहिज मां को उनकी टूट चुकी शादी की खबर से मानसिक आघात न हो। ऐसे में उन्होने अपने अपने बैडरुम में ही अपनी अपनी दुनिया बना ली है ।

इसी तरह तीसरी आंख कहानी लिखने के पीछे भी मेरा मंतव्य यह नहीं था कि मैं ऐसे परिवार का चित्रण करुं जिसमें मुखिया को छोड़कर बाकी तमाम पात्र गड़बड़ हों । दर असल इस कहानी को मैंने यह दिखाने के लिये गढा था कि परवरदिगार ने हमें जो सब कुछ न देखने की अक्षमता दी है वह उसका मानव जाति पर बडा उपकार है। यदि हम लोग सबके मन मे छिपी भावनाओं को पढने मे सक्षम होते तब यह जीवन कितना दुरूह हो जाता ।

मैं अपनी कुछ ऐसी कहानियों का जिक्र करना चाहूंगा जिसमे आप को बहुत अच्छे पात्र भी मिलेंगे । जैसे सेंटाक्लाज वाली कहानी । उन्नीस सो बानवे के राम मन्दिर बाबरी मस्जिद विवाद की प्रष्ठ्भूमि पर लिखे उपन्यास कथा वाचक का नायक तो एक विलक्षण पात्र है। वह एक अदना सा पुलिस कांस्टेबल है। वह अपने कर्तव्य के प्रति इतना ईमानदार है कि कानून हाथ मे लेने वाले लाखों जुनूनी लोगों की भीड से लोहा लेने के लिये इकलोता खडा रहता है। अपनी जान की परवाह भी नहीं करता।

यह उपन्यास मैने एक पत्रिका मे प्रकाशित एक छोटी सी रिपोर्ट से प्रभावित होकर लिखा था। मैं इस बहादुर सिपाही की हिम्मत से इतना प्रभावित हुआ कि इस महानायक के सम्मान मे पूरा उपन्यास लिख गया ।

(हंसकर).....अब तो आप भी स्वीकार करेंगे कि मेरी अधिसंख्य कहानियों मे खलनायक किस्म के पात्र नही हैं ।

Monday, April 5, 2010

आबिद सुरती और आर .के.पालीवाल की अंतरंग वार्ता - 2


आपने गुजराती और हिन्दी दोनों ही भाषाओं में काफी लिखा है। जाहिर है गुजराती ओर हिन्दी साहित्य आपने पढ़ा भी काफी होगा । इन दोनों भाषाओं के साहित्य को एक आलोचक की नजर से तुलनात्मक रूप में आप कहां पाते हैं। मेरा आशय इनकी परस्पर तुलना ओर विश्व साहित्य के बर अक्श स्तिथी से है।

मै तो अपनी सीमित जानकारी के आधार पर मोटा मोटी ही इस सवाल का जवाब दे पाऊंगा। इसका सही आकलन तो आलोचक ही कर सकते हैं।जहां तक गुजराती ओर हिन्दी साहित्य की तुलना का प्रश्न है मेरा मानना है कि दोनो मे अच्छा साहित्य रचा गया है। हिन्दी मे जिस तरह प्रेमचंद के बाद नई कहानी,प्रगतिवाद,समांतर कहानी आदि आन्दोलन हुए वैसे ही प्रयोग ओर प्रगतिशीलता से गुजराती साहित्य मे भी काफी परिपक्वता आई है। मोहन राकेश आदि ने जिस तरह के बद्लाव हिन्दी साहित्य मे किये गुजराती मे भी नये प्रयोगों से नया साहित्य रचा गया। मैं एक उदाहरण देना चाहूंगा ।मुझे याद नही पडता कि हिन्दी के किसी लेखक ने अपनी कहानी मे रोमान्टिक माहोल दर्शाने के लिए चांद तारों की जगह दोपहर के सूरज ओर चिलचिलाती धूप का इस्तेमाल किया हो। गुजराती के कथाकार सुरेश जोशी ने अब से तीस साल पहले एक प्रेम कहानी मे इस तरह के नये प्रतीक गढे हैं। इससे आप अंदाज लगा सकते हैं कि गुजराती कहानी हिन्दी कहानी से कतई कम नही है।

वैसे भी आजकल एक भाषा से दूसरी मे खूब अनुवाद हो रहे हैं। साहित्य अकादमी राष्ट्रीय स्तर पर और कई प्रादेशिक संस्थाए भी इस काम मे जुटी हैं। ऐसे माहोल मे देश विदेश की बाकी भाषाओं मे हो रहे प्रयोगों का असर समूचे साहित्य पर पडता है।

गुजराती कथाकारों मे आप किन अग्रज एवम समकालीन कथाकारों से अधिक प्रभावित हैं
जहां तक गुजराती कहानी और मेरे पसंदीदा कथाकारों की बात है उसमे सबसे पहले तो यह बताना चाहूंगा कि गुजराती और हिन्दी कहानी की शुरूआत लगभग एक साथ हुई थी। जैसे हिन्दी की आधुनिक कहानी का आरंभ बीसवी शताब्दी के आरंभिक वर्षों मे हुआ वैसे ही 1918 मे प्रकाशित कंचनलाल मेहता मलयानिल की कहानी गोवालणी (ग्वालिन) को गुजराती की आधुनिक कलेवर की कहानी मानते हैं। इसके बाद धूमकेतु की कहानियों ने गुजराती कहानी को बहुत महत्वपूर्ण बदलाव दिया। धूमकेतु ने जीवन के यथार्थ को कहानी से जोडा। राम नरायण द्विरेफ ने अपनी कहानियों मे मानव मन की गुत्थियों को बडी कुशलता से खोला है।

गुजराती कहानी को गांधीजी के राजनीतिक चिन्तन और रूसी क्रान्ति ने भी काफी प्रभावित किया। झवेरचन्द मेघाणी जो पत्रकार के साथ साथ लोक साहित्य के विकट जानकार थे उन्होने कहानी मे आम आदमी का प्रवेश किया। चुन्नीलाल मडिया ने ग्रामीण और शहरी समाज पर व्यंग्य के पुट वाली असरदार कहानियां लिखी।

मेरी नजर मे सुरेश जोशी गुजराती के बेहद सशक्त कथाकार हैं। जोशी ने पाश्चात्य साहित्य का अच्छा खासा अध्ययन किया था। एक तरह से उनकी कहानियों ने भी गुजराती कहानी को नये आयाम दिये।

कई स्त्री कथाकारों का भी गुजराती कहानी लेखन मे महत्वपूर्ण योगदान है। कुन्दनिका कपाडिया, सरोज पाठक, वर्षा अडालजा, हिमांशी सेलत, अंजलि खांडवाला और तारिणी देसाई गुजराती की अग्रणी कथा लेखिका हैं।

वर्तमान भारतीय कहानी जगत मे गुजराती कहानी का महत्वपूर्ण स्थान है। पवन कुमार जैन, कनु अडासी, प्रवीण सिंह चावडा, ध्रुव भट्ट आदि कई कथाकार अच्छी कहानियां लिख रहे हैं। इनकी कहानिओं मे कथा तत्व और कला तत्व दोनों मोजूद हैं।


Thursday, April 1, 2010

आबिद सुरती और आर .के.पालीवाल की अंतरंग वार्ता - 1



आबिद सुरती और आर .के.पालीवाल की अंतरंग वार्ता



आपने साहित्य और कला की विभिन्न विधाओं मे सृजनशील रहते हुए दोनो क्षेत्रों में अच्छी खासी सक्रियता बरकरार रखी है और इन दोनों क्षेत्रों में प्रसिध्दी भी पाई है । हालाँकि इस तरह के प्रयास रामकुमार वर्मा सरीखे गिने चुने कुछ और भी साहित्यकारों,कलाकारों ने किये हैं लेकिन उनमें अधिकांश ने बाद के वर्षो में साहित्य या कला में से एक को ही अधिक तरजीह दी है। आप तकरीबन पांच दशकों से दोनों क्षेत्रों में अपनी सक्रियता कैसे बरकरार रख पाये ?



मैं कुछ बातें सबसे पहले स्पष्ट करना चाहूँगा। भले ही मैं पिछले पचास पचपन साल से साहित्य और कला दोनों से बराबर ओर लगातार जुड़ा रहा हूँ लेकिन मेरी इस दोहरी सृजनशीलता में अलग अलग फेज रहे हैं। पहली बात तो यह कि मैं खुद को मूलत: कलाकार मानता हूँ। पेंटिंग मेरा मनमाफिक विषय है । साहित्य का प्रवेश मेरे जीवन में दूसरी तरह से हुआ। साहित्य की शुरुआत का प्रमुख कारण आर्थिक था। यह अलग बात है कि साहित्य कि सम्भावनायें भी मेरे अन्दर थी ओर इसीलिए अपना परिवार चलाने के लिये पत्रिकाओं ओर प्रकाशकों की फरमाईश के हिसाब से साहित्य सृजित कर पाया। फिर धीरे धीरे मुझे यह भी आभास होने लगा कि फरमाइसी लोकप्रिय साहित्य के साथ साथ मैं गम्भीर साहित्य भी रच सकता हूं। दरअसल मेरे कई साहित्यिक मित्र जब तब इस दिशा मे मोडने के लिये लानत मलामत के जरिये प्रेरित भी करते रहते थे।



जिन दो हिन्दी पत्रिकाओं से मेरा सर्वाधिक जुडाव रहा उनके संपादकों धर्मवीर भारती (धर्मयुग) ओर कमलेश्वर (सारिका) से मेरे करीबी संबंध रहे। धर्मयुग से मेरा जुडाव नियमित कार्टून कलाकर के रूप में था जिसकी ढब्बू जी कार्टून सीरीज ने हिन्दी जगत में अदभुत लोकप्रियता हासिल की थी। सारिका में कुछ चर्चित कहानिओं के जरिये मैं कहानीकार के रूप में रूबरू हुआ।



प्रारंभिक दौर में साहित्य और कला को लेकर मेरा नजरिया कला के प्रति आत्मीय समर्पण वाला था । उन दिनों अपनी चित्रकारी को मूर्त रूप देने के लिए मेरे पास आर्थिक संसाधनों का अभाव था। और यह मुझे गवारा नहीं था कि अपने समकालीन कुछ अन्य कलाकारों की तरह मैं अपनी पेंटिंग्स को पैसे कमाने का जरिया बनाऊँ। इस काम के लिये मैने व्यवसायिक लेखन का सहारा लिया। पहले मैं केवल गुजराती मे लिखता था जिसका बाद मे हिन्दी मे अनुवाद होता था। इस दौर में मैंने कई उपन्यास लिखे जिनका साहित्य की दृष्टी से कोई खास महत्व नहीं है लेकिन उनमें से कई लोकप्रिय हुए ओर मेरी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन बने।



साहित्य का मेरा दूसरा दौर आप उसे मान सकते हैं जब मैने मूल रूप से हिन्दी मे लिखना शुरू किया । धीरे धीरे गुजराती का लेखन कम होता गया और हिन्दी का बढ्ता गया।



साहित्य का मेरा तीसरा दौर पिछले दस वर्षों से चल रहा है। यही वह दौर है जब मैं पूरे मनोयोग से गंभीर साहित्य को समर्पित हूँ। आजकल मेरी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ नहीं है और ऐसी आर्थिक आवश्यकतायें नही हैं कि अर्थोपार्जन के लिये मुझे व्यवसायिक लेखन करना पड़े। यह दौर ही मेरे साहित्य का सबसे महत्वपूर्ण दौर है जिसमें मैंने जितना साहित्य रचा है वह सब एक गंभीर साहित्यकार की संजीदगी के साथ लिखा है। शायद जीवन के इसी पडाव पर पहुँचकर मैं साहित्य ओर कला को समान नजरिये से आत्मसात कर पाया हूँ।



• गुजराती में कई साल लिखने के बाद हिन्दी में लिखने के लिये कौन से कारण प्रमुख थे ?



देखिये, गुजराती मेरी मूलभाषा जरूर है लेकिन मुंबई में रहते हुए हिन्दी , उर्दू, ओर अंग्रेजी से मेरा लगातार सम्पर्क रहा। जहाँ तक हिन्दी का प्रश्न है उसमें मेरी रूचि सबसे पहले देवकी नंदन खत्री की रचनाओं के कारण हुई। उन्हें तो कुछ आलोचक साहित्यकार भी नहीं मानते लेकिन मेरी सच्चाई यही है। हिन्दी ठीक से सीखने के बाद तो हिन्दी के और भी कई रचनाकारों को पढ़ा। धीरे धीरे हिन्दी में भी हाथ साफ होने लगा। उर्दू तो पारिवारिक परिवेश में भी काफी थी। धर्मयुग में धर्मवीर भारती के साथ हिन्दी के कई लेखकों से मिलने जुलने के सिलसिले चल निकले।और हिन्दी में लेखन शुरू हो गया।





हिन्दी में मौलिक लेखन का दूसरा कारण यह भी था कि हिन्दी का पाठक वर्ग गुजराती की तुलना में काफी व्यापक है। कई प्रदेशों में हिन्दी का बोलबाला है। मेरी कई गुजराती रचनाओं के हिन्दी अनुवाद भी काफी लोकप्रिय हुए। हिन्दी पत्रिकाओं के संपादकों और हिन्दी के प्रकाशकों की फरमाईश भी हिन्दी में लिखने का एक कारण बनी।





• कई कहानी संग्रह ओर उपन्यासों के अलावा आपका एक गजल संग्रह भी प्रकाशित हुआ है लेकिन आपने गजलें ओर कविताएँ ज्यादा नहीं लिखी। हिन्दी पाठक आपके कथाकार रूप से ही अधिक परिचित हैं।





साहित्य में मैं कथाकार ही हूं। कविता या गजल मेरी विधा नहीं । एक गजल संग्रह जरूर प्रकाशित हुआ है। बहुत पुरानी बात हो गयी यह भी। दर असल सच्चाई यह है कि इस संग्रह की गजलें मैंने उस समय लिखी थी जब मेरा मन साहित्य और कला दोनों से उचटा हुआ था। उन दिनों कुछ ऐसी मनस्तिथी थी कि न कोई नई कहानी या उपन्यास लिखने का मन था ओर न पेंटिंग बनाने में रूचि थी। एक तरह से टाईमपास जैसा कह सकते हैं इसे। कुछ लोगों ने ये गजलें पढ़कर थोड़ी बहुत तारीफ कर दी। उसी का परिणाम ये हुआ कि यह संग्रह छप गया। इस इकलोते संग्रह के बाद कभी गजल या कविता नहीं लिखी। केवल कहानी और उपन्यास ही लिखे। कविता मेरी विधा नहीं है।