Wednesday, April 14, 2010

आबिद सुरती और आर .के.पालीवाल की अंतरंग वार्ता - 4

आपकी कुछ कहानियों/उपन्यासों में अधेड उम्र के पुरूषों का उनसे काफी कम उम्र की लडकियों/स्त्रियों के प्रति गहरा आकर्षण ओर दैहिक संबंधों का चित्रण है।एक तरह से लेखक ऐसे संबंधों का पक्ष लेता भी दिखता है जिन्हें समाज अस्वीकृत करता है । वे संबंध आपके लेखन मे सहज दिखते हैं।

आपका आशय किन कहानियों से है ।

जैसे आपकी बेहद चर्चित कहानी कोरा कैनवास जिसके हंस मे प्रकाशित होने पर पत्रों के माध्यम से काफी प्रतिक्रियाएं हुई थी लेखक और पाठक वर्ग में । इस कहानी को प्रकाशित करते समय हँस के यशस्वी संपादक राजेन्द्र यादव ने इस तरह की वैश्विक कथा सामग्री का संक्षिप्त इतिहास भी बताया था अपने संपादकीय में । यही विषय आपके उपन्यास ‘तितली के पंखो पर उसका नाम’ में हैं और ऐसी ही स्थितियाँ आपके नाटक ‘ढलती उम्र के साये’ में हैं ?



देखिये आपने जो तीन उदाहरण दिये हैं उनमें अधेड उम्र के पुरुष का कम उम्र की लड़की या औरत से प्रेम संबंध दिखाया है । इन सबमें क्या आपको ऐसा लगता है कि ये कोरी कल्पना हैं। मैंने ऐसे कई सम्बन्ध देखे हैं । कोरा कैनवास और ‘तितली के पंखो पर उसका नाम’ मेरी अपनी डायरी पर आधारित है ताकि उसकी विश्वसनीयता पर कोई संदेह न हो। यह एक प्राकृतिक सच है । मैं यह तो नहीं कहता कि अधेड पुरूष ही कम उम्र की महिलाओं के प्रति आशक्त होते हैं या लड़कियाँ अपने से उम्रदराज पुरुष के प्रति आशक्त होती हैं । मेरे कहने का तात्पर्य केवल इतना है कि समाज में कई बार ऐसी परिस्थितियाँ बन जाती हैं जब उम्र के फासले इस तरह के संबंधो में अवरोघक नहीं होते । और जब विवाहित जीवन का रोमांस सूखने लगता है तब किसी स्त्री-पुरूष की आशक्ति ऐसे साथी या सहकर्मी से हो सकती है जिसकी उम्र उससे काफी कम या काफी अधिक है । इसका मतलब यह नहीं है इस तरह के संबध बहुतायत में है । यह तभी संभब है जब दोनों पक्ष इस स्थिती को सहजता से लेते हैं । और मेरा कहना है कि कई बार ऐसी संभावनाए बन जाती हैं ।

कोरा कैनवास कहानी पर यूँ तो कई तरह की प्रतिक्रियायें हुई थी । कुछ पाठकों ने इसे बेहद सराहा था, कुछ ने इसे अश्लील कहकर खारिज किया था लेकिन लेखिका जया जादवानी ने इस पर संतुलित प्रतिक्रिया व्यक्त की थी । कहानी की सराहना के साथ साथ उन्होंने कहा था कि इसमें लेखक ने नायिका के मन को ही खोला है, नायक के मन को वैसे नहीं खोला । मैं इसमें यह और जोड़ना चाहूँगा कि कहानी का नायक विवाहित है। उसकी स्वस्थ सुंदर पत्नि है । लेकिन कहानी न पत्नि की मनस्थिती के बारे में कुछ बताती और न नायक के मन में पत्नी के प्रति जिम्मेदारी के भाव से बचने की मानसिक उथल पुथल का चित्रण करती है । यह कहानी का अधूरापन लगता है ।


जैसे मैं पहले भी कह चुका हूँ , इस कथा का मूलतत्व एक अधेड़ विवाहित पुरूष और एक युवा लड़की के बीच पनपा रिश्ता है, जिसे डायरी के माध्यम से शब्द दिये हैं। इसके विशिष्ट शिल्प के कारण इन दो प्रमुख पात्रों के अलावा बाकी पात्रो और घटनाओं का खास जिक्र नहीं है । क्योकि डायरी इस खास संबंध के बारे में ही लिखी गई है जो सामान्य डायरी लेखन से अलग इसी रिश्ते पर केंद्रित है । इसमें नायक की पत्नी का जिक्र तो आता ही है और यह संकेत भी हैं कि पति-पत्नी के रिश्ते मे कोई खास ऊष्मा नहीं है । इसीलिए इस तरह का रिश्ता जुड़ता है ।

जहाँ तक पाठ्कों की तरह तरह की प्रतिक्रियायें हैं – वे पाठकों की अपनी सोच और अपने नजरिये से कहानी को पढ़ने के कारण बनती हैं । जैसे लेखक लिखते समय कोई नजरिया रखता है वैसे ही पाठक पढ़ते समय अपने नजरिये से कहानी को परखते हैं ।


आपकी कहानियों में कई तरह के शिल्प मिलते हैं । हालांकि ज्यादातर कहानियाँ यथार्थवादी हैं । उनमें से कई में पत्रकार सरीखी पैनी दृष्टी दिखती है जो एक ही घटना के कई पहलुओ को बारीकी से सीधे सीधे पाठकों के सामने रखता है । ‘शोफर’ कहानी में यात्रा वृतांत जैसा रस है । इन सीधी सपाट कहानियों के उलट ‘बिज्जू’ जैसी कुछ ऐसी कहानियाँ हैं जिनमें गहरे प्रतीकों का इस्तेमाल हुआ है । ‘कैनाल’ को भी इसी श्रेणी में रखा जाएगा । शिल्प की विविधता क्या इसीलिए संभव हो पाई कि आप कई विधाओं के हरफन मौला व्यक्ति हैं – मेरा मतलब पत्रकारिता, पेंटिंग, व्यंग, कार्टूनिस्ट, घुमक्कड, फक्कड – और और भी न जाने क्या-क्या ... जैसे पानी बचाने की मुहिम में जुटे समाज सेवी पलम्बर !

आप की बात काफी हद तक सही हो सकती है । मैंने कुछ काम अपने मनमाफिक किये हैं और कुछ रोजी रोटी के लिए । जहाँ तक पत्रकारिता का प्रश्न है – इस पेशे से मेरा सीधा जुडाव नहीं रहा । पत्र पत्रिकाओं के कार्टूनिस्ट की भूमिका और बहुत से पत्रकारों से करीबी दोस्ती के चलते पत्रकारिता से अप्रत्यक्ष जुडाव जरुर रहा है । कई दिशाओ में हाथ पैर चलाने के कुछ फायदे भी होते हैं । कहानियों में विविधता तो सकारात्मक लक्षण ही हुआ (हंसकर)

साहित्यकारों और कलाकारों के सामाजिक सरोकारों और उनकी सामाजिक सक्रियता को लेकर शुरू से दो मत रहे हैं । आप लेखक और कलाकार की सामाजिक सक्रियता को किस हद तक जरुरी समझते हैं ?

पहली बात तो यह कि साहित्यकार या कलाकार को जो सबसे अच्छा लगे वही करना चाहिए । यह चीज बाकी लोगों पर भी लागू होती है । दूसरी, सबकी अपनी व्यक्तिगत परिस्थितियाँ होती हैं । जहाँ तक मेरी अपनी बात है – मैंने शुरुवाती तीस साल तक फरमाईस के अनुसार लेखन किया । उस समय मेरे लिए साहित्यिक या सामाजिक सरोकार से ज्यादा घर परिवार की जिम्मेदारी हावी थी ।


पिछ्ले दस साल से मैंने जो भी लिखा है वह विशुध्द साहित्यिक सरोकार से जुड़कर लिखा है । आगे भी जो लेखन होगा वह इसी तरह का होगा । इस समय मेरी परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि मै सामाजिक सरोकारों से भी जुड़ सकता हूँ । अच्छा भी यही है कि अगर किसी साहित्यकार या कलाकार की पारिवारिक परिस्थितियाँ सामाजिक सरोकारों में सक्रियता से जुड़ने की छूट देती हैं तो उन्हे जरूर आगे आना चाहिए ।


जहाँ तक मेरी सामाजिक सक्रियता और सरोकारों का सवाल है – इधर मैंने नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए बच्चों की सचित्र रोचक पुस्तक माला के लिए एक किताब लिखी है –बुध्द 2500 साल बाद क्यों मुस्कुराये । इस किताब के माध्यम से मैंने एक अनूठा प्रयोग किया है जिसमें अलग-अलग प्रांत से अलग-अलग धर्म के बच्चों के अलग-अलग अंग भारत भ्रमण पर निकलते हैं । ये अंग एक दूसरे से मिलकर एक सुंदर मानव की रचना करते हैं । यह मानव बुध्द के सपने का महा मानव है । आज के भारत को ऐसे ही मनुष्य की आवश्यकता है ।


घुमक्कडी के साथ साथ सांप्रदायिक सदभाव और एकता की आवश्यकता को रोचक अंदाज में प्रस्तुत किया है आपने । मैंने पढी है यह पुस्तिका । बुध्द के मुस्कुराने को बड़ा सुंदर अर्थ दिया है आपने । बच्चों के लिए इस तरह की पुस्तकें बहुत जरूरी हैं । लेकिन दुर्भाग्य से इसकी खासी कमी है ।

अब मैंने इसी तरह के लेखन और कामों की शुरूआत की है । हमारी पानी बचाओ मुहिम भी धीरे-धीरे लोकप्रिय हो रही है । पानी, प्रकृति और पर्यावरण के महत्त्व के प्रति बच्चों और शहरियों को जागरूक करना चाहिए । हमारी संस्था कई कालोनियो के नलो से रिसते पानी की बरबादी रोकने के लिए मुफ्त पलम्बर की सुविधा उपलब्ध कराती है । इसके प्रचार प्रसार में कुछ फिल्मी सितारों सहित कई स्कूलों के बच्चे भी जुड़े हैं ।

प्रकृति और पर्यावरण पर भी कुछ लोग बड़ी संजीदगी से काम कर रहे हैं । कुछ लिखकर, कुछ दूसरी तरह से । हाल ही में मैंने अंग्रेजी लेखिका मुरियन ककानी की वन, वन्यजीवन और पर्यावरण संबैधित बच्चों की अदभुत किताबें देखी हैं । वे ‘इकोलाजिकल टेल्स’ सीरीज के अंतर्गत किताबें प्रकाशित कर रही हैं। ऐसे लेखकों का काम ठीक से सामने आना चाहिए ।

आपने कहा कि कला को मैंने व्यवसायिक नहीं बनने दिया, हमेशा अपनी इच्छानुसार ही पेंटिग्स बनाई । आजकल कला का अच्छा खासा बाजार है जो लेखन से कई गुणा फायदेमंद है । एम.एफ.हुसैन की एक एक पेंटिंग करोडों में बिकती है ! जब लेखन व्यवसायिक हो सकता है तब कला से अर्थोपार्जन में वैसा परहेज क्यूँ !



मेरा मतलब यह नहीं कि पेंटिंग बेचना गलत है । आपने एम.एफ.हुसैन की बात की । उनकी सच्चाई यह है कि उन्हें कला से अधिक मार्केटिंग की कला आती है । किस तरह चर्चा में रहा जाता है और कैसे मीडिया, विशेष्ररूप से कला समीक्षकों की जेबें गर्म करके अपनी सामान्य कला के भी तारीफों के पुल बांधॅ जाते हैं । मैं यह काम नही कर सका। एक बात और है मेरे साथ । मैं यह नहीं कर सकता कि मेरी कोई पेंटिंग यदि ज्यादा पसंद आऐ लोगों को तो उनकी फरमाईश पर मैं दनादन वैसी ही पैंटिंग बनाता रहूँ । हुसैन बार बार घोड़ॉ वाली पैंटिंग बना सकते हैं – मुझसे यह नहीं हो सकता ।

जहाँ तक कला की मार्केटिंग की बात है उससे तो मैं सहमत हो सकता हूँ । बल्कि कई बार सोचत्ता हूँ कि कला समीक्षकों पर कुछ खर्च करके प्रचार प्रसार करता तो बेहतर होता । और ज्यादा लोग मुझे जानते । आमदनी भी ज्यादा होती । लेकिन दूसरी चीज मैं कभी नहीं कर सकता । एक ही तरह की पेंटिंग बार बार थोक में नहीं बना सकता । भले ही उसके लिए अमीर ग्राहक तगडी रकम देने को तैयार हों । तब भी नहीं ।

जहाँ तक मेरी जानकारी है अपनी पेंटिंग की मार्केटिंग का काम पिकासो ने भी कुशलता से किया था और उनके बाद के भी कई कलाकरों ने किया है । लेकिन पिकासो की कला में दम भी था और विविधता भी थी । वह शुध्द व्यवसायी नहीं था ।

एम.एफ.हुसैन के चर्चित घोडों की तरह आपकी कौन-सी पेंटिंग ज्यादा सराही गई हैं ।

मैंने मिरर कोलाज पर काफी काम किया है । उसकी चर्चा और सराहना भी बहुत हुई । लेकिन बाद में उसे भी मैंने बार-बार नहीं दोहराया । (हँसकर) उसे मैंने घोडा बनाकर नहीं दौडाया ।

आप अपनी आत्मकथा कब लिख रहे हैं। लिखेंगे भी या आपकी जीवन गाथा किसी दूसरे लेखक को लिखनी पडेगी।

अपने उपन्यास मुसलमान में मैंने अपनी आत्मकथा तो पहले ही लिख दी है । आत्मकथात्मक उपन्यास लिखने के बाद अलग से आत्मकथा लिखने की आवश्यकता महसूस नहीं होती ।

अभी तो ‘बहत्तर साल का बच्चा’ सिर्फ पचहत्तर साल का बच्चा हुआ है । भविष्य की कुछ महत्वाकांक्षी योजनाएं भी होंगी ।

यदि पूरी हो सकी तो एक बडी तीव्र इच्छा है – अपने उपन्यास काले गुलाब पर फिल्म बनाने की । वैश्याओं के जीवन और उनको समाज से जोडने की पृष्ठ्भूमि है इस उपन्यास की। मुझे उसकी थीम बहुत प्रिय है । देखते हैं यह इच्छा पूरी होती है या नहीं ।

हम उम्मीद करते हैं कि आपकी इच्छा जरूर पूरी होगी और जल्द ही हमें आपकी एक और विधा के दर्शन होंगे – आमीन !

9 comments:

  1. achhi baat ki hai . Lagata hai 75 saal ka bacha ab kuchh jyaad samajhdaar ho raha hai.

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  2. bahut achchhi baatcheet. badhai! Abid ji to adbhut admi hain!

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  3. एक जबरदस्त व्यक्ति से जबरदस्त बतकही। पालीवाल जी का आभार।

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  5. धन्यवाद चतुर्वेदी जी एवम अफ्लातून जी । उम्मीद है आप इस ब्लाग के संपर्क मे आगे भी रहेंगे।

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  6. badi achchi lagi ye batchit. abid ji vais kai dafa mira road me bhatakate hue dikh jate hain, par unke faqirana chal me khalal na pade yahi sonch unhe chhedta nahi. aapne aise chheda hai ki bilkul nahi chhoda hai . dhanyavad aur badhai

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  7. धन्यवाद बसंत जी । उम्मीद करता हूं निकट भविष्य में आप भी आबिद जी को सरे राह छेडने मे हिचकेंगे नही।

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  8. बातचीत बहुत ही सार्थक है आपने न केवल आबिद जी के विचारों से अवगत करवाया है अपितु उनके व्यक्तित्व को भी अप्रत्यक्षत उभारा है लेखक के अतरिक उनकी सामाजिक कार्यों में सशक्त भूमिका का परिचय भी मिलता है
    बधाई

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  9. धन्यवाद प्रेम जी । उम्मीद है आप इस ब्लाग के संपर्क मे आगे भी रहेंगे।

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